विशेष सीरीज: उपचुनाव के बाद सामने आया लालू का विज्ञान, आइए समझें...
लालू प्रसाद यादव केवल एक विचार नहीं, बल्कि विज्ञान हैं। चारा घोटाला में जेल जाने के बावजूद उनका मैजिक कायम है। जोकीहाट उपचुनाव में राजद की जीत से यह एक बार फिर साबित हो गया है।
पटना [काजल]। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव बिहार की राजनीति के दिग्गज माने जाते हैं। बात करने के दिलचस्प अंदाज के लिए लालू पूरी दुनिया में मशहूर हैंं। अपनी बेबाकी और बयानबाजी का उम्दा अंदाज ही उन्हें और राजनेताओं से अलग करता है। राजनीति विज्ञान के छात्र रहे लालू जनता के मन का विज्ञान भी पढ़ना जानते हैं। यही वजह है कि उनकी राजनीति को समझना हर किसी के लिए संभव नहीं रहा। यही कारण है कि जोकीहाट उपचुनाव में मिली जीत के बाद लालू के बेटे तेजस्वी यादव ने कहा कि लालू विचार नहीं विज्ञान हैं।
लालू... जिन्हें कोई भारतीय राजनीति का मसखरा कहता है, तो कोई गरीबों का नेता, तो कोई उनको बिहार की बर्बादी का जिम्मेदार भी मानता है। जो भी हो, लालू की चाहत का आलम ये है कि हार्वर्ड यूनिवर्सिटी भी उन्हें अच्छी तरह जानती है। वो चाहे जैसी सियासत करें, आप उन्हें चाहे पसंद करें या नापसंद उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते।
गांव के गरीब परिवार में जन्मे लालू
लालू का जन्म 11 जून 1948 को बिहार के गोपालगंज जिले के फुलवरिया गांव में हुआ। बेहद गरीब परिवार में जन्मे लालू की प्रारंभिक शिक्षा गोपालगंज में ही हुई। उसके बाद वे अपने भाई मुकुंद राय के साथ पटना चले आए। मुकुंद एक सरकारी वेटरनिरी कॉलेज में चपरासी थे। लालू ने पटना के बीएन कॉलेज से लॉ में ग्रेजुएशन किया और राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की।
कॉलेज के दिनों में ही राजनीति में दिखने लगा कॅरियर
कॉलेज के दिनों में ही लालू को राजनीति में अपना कॅरियर दिखाई देने लगा था। 1966 में पटना का बिहार नेशनल कॉलेज कांग्रेस विरोधी भावनाओं से भरा था। उनकी शुरुआत छात्र नेता के रूप में हुई। इसी दौरान वे जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से जुड़े और यहीं से उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई।
उस समय देश में इंदिरा गांधी का विरोध शुरू हो चुका था। लालू यादव भी जेपी के साथ आंदोलन में शामिल हो गए। जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया और पूरे देश में नेताओं के साथ लाखों आंदोलनकारियों को भी जेल में बंद कर दिया। इसमें लालू भी जेल चले गए।
29 साल की उम्र में बने सांसद
जब आपातकाल खत्म हुआ, 1977 के लोकसभा चुनाव में जेपी की अगुआई में जनता पार्टी को जीत मिली और कांग्रेस पहली बार देश की सत्ता से बाहर हो गई। तब लालू प्रसाद यादव 29 वर्ष के युवा सांसद के तौर पर सारण लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे।
1990 से लेकर 2005 तक अपने दम पर संभाली बिहार की सत्ता
लालू 1980 से 1989 तक दो बार बिहार विधानसभा के सदस्य रहे और विपक्ष के नेता पद पर भी रहे। लालू ने 1990 से लेकर 2005 तक अकेले अपने दम पर बिहार की सत्ता पर पकड़ बनाए रखी। मुस्लिम-यादव के ठोस जनाधार और अन्य पिछड़ी जातियों के सहयोग से अपनी चुनावी रणनीति बनाए रखने में लालू कामयाब होते रहे।
'एमवाय' समीकरण को बनाया आधार
10 साल के भीतर ही लालू ने बिहार की जनता की मनःस्थिति भांप ली और राज्य में अपना सिक्का जमा लिया। मुसलमानों और यादवों के बीच लालू मान्य नेता के रूप में उभरे। उस दौरान ज्यादातर मुसलमान कांग्रेस के समर्थक हुआ करते थे, लेकिन लालू ने कांग्रेस का यह वोटबैंक तोड़ दिया।
दूसरा फैक्टर जिसने लालू के पक्ष में काम किया 1989 में भागलपुर हिंसा थी। अधिकांश मुसलमान यादवों के पक्ष में हो गये और यादव माने लालू।
मंडल लहर पर की सवारी
1990 में टूटे-बिखरे बिहार में लालू ने अपना राजनीतिक कौशल दिखाया। मंडल कमीशन की लहर पर सवार होकर वो जनता दल की तरफ से सत्ता पर काबिज हुए और 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे। जनता से उनका वादा था- स्वर्ग नहीं तो स्वर। खामोश रहने वालों को आवाज और सम्मान। पिछड़ी जातियों और मुसलमानों को बराबरी।
रातोंरात पत्नी को बनाया मुख्यमंत्री
1997 में चारा घोटाला हुआ, उन्हें चार्जशीट किया गया और जेल भी जाना पड़ा। जेल जाने के बाद भी लालू का पार्टी पर दबदबा कायम रहा। इसके पहले उन्होंने आनन-फानन में पत्नी राबड़ी को सूबे की कमान सौंप दी। राबड़ी सरकार का चेहरा बनी रहीं, पर्दे के पीछे से लालू सरकार चलाते रहे।
लेकिन, उनकी साख पर बट्टा लग चुका था। 2000 में लालू पर आय से ज्यादा संपत्ति के आरोप लगे और वो दिन भी आया जब उनके ही लोगों ने उन्हें ठुकरा दिया।
बिहार में सत्ता के 15 साल में लालू की जननायक वाली छवि पर उनकी साख पर बट्टा लग चुका था। कभी घोड़ागाड़ी में बैठकर, कभी राष्ट्रीय जनता दल के रथ पर सवार होकर लालू ने हर तिकड़म आजमाया, लेकिन लालू की लालटेन की लौ धीमी पड़ गई।
1998 में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी। दो साल बाद विधानसभा का चुनाव हुआ तो लालू की पार्टी राजद अल्पमत में आ गई। सात दिनों के लिये नीतीश कुमार की सरकार बनी परन्तु वह चल नहीं पायी और एक बार फ़िर राबड़ी देवी मुख्यमन्त्री बनीं। कांग्रेस के 22 विधायक उनकी सरकार में मन्त्री बने।
2004 में बने रेलमंत्री, मुनाफे से सबको कर दिया हैरान
2004 में लोकसभा चुनाव मे एनडीए की करारी हार के बाद के बाद लालू यूपीए के शासन काल में गृह मंत्री बनना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस के दबाव के बाद रेल मंत्री बनने को राजी हुए। हालांकि लालू ने रेलवे को मुनाफे में लाकर सबको चकित कर दिया।
लालू प्रसाद यादव ने रेलमंत्री के रूप में रेल का कायापलट कर डाला। रेलवे की व्यवसायिक सफलता की कहानी को समझने के लिए हार्वर्ड विवि और कई अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के विशेषज्ञों ने रेल मंत्रालय के मुख्यालय का दौरा किया।
हमेशा सुर्खियों में रहे लालू
रेल मंत्रालय संभालने के बाद रेल मंत्रालय अचानक अरबों रुपए के मुनाफे में आ गया था। लालू यादव के इस कुशल प्रबंधन की चर्चा भारत ही नहीं पूरे विश्व में होती है। बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गालों की तरह बनाने का वादा हो या रेलवे मे कुल्हड़ की शुरुआत, लालू हमेशा से ही सुर्खियों मे रहे।
ये थीं लालू की खूबियां
बतौर प्रशासक उन्होंने लालफीताशाही की जड़ें काटने की कोशिश की। तरीका था पीपल के पेड़ के नीचे सचिवों की बैठक। राज्य भर में चरवाहा विद्यालयों की शुरुआत, जहां पिछड़ी जातियों के बच्चों को पढ़ाने का इंतजाम था। पिछड़ों को खास होने का एहसास दिलाने के लिए लालू खुद उनके बच्चों के बाल तक काटने पहुंच जाते थे। खुद झुग्गियों में सफाई अभियान चलाते थे।
लालू ने पिछड़ों को किया दुखी
लालू ने 15 साल तक बिहार पर राज किया। इस दौरान लालू का फोकस पिछड़ों का स्वर मजबूत करने पर रहा, लेकिन वो उनका स्तर भूल गए। बिहार उसी अंधेरे में पड़ा रहा। भूख और गरीबी ने जड़ें जमाए रखीं। जब दूसरे राज्यों में आर्थिक सुधार हो रहे थे, जबकि बिहार कई सदी पीछे की दुनिया में जी रहा था।
ये वो वक्त था जब लालू बिहार में सत्ता का केंद्र थे। ताकत ने लालू को भ्रष्ट करना शुरू कर दिया था। सत्ता के नशे ने लालू को जनता से दूर कर दिया। घोटाले, अपराध से बिहार उनके राज में और पिछड़ने लगा। कभी लालू पर आंख मूंद कर भरोसा करने वाली राज्य की जनता उनसे और उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं से त्रस्त हो गई। लेकिन साम-दाम-दंड-भेद अपनाकर लालू सत्ता पर कब्जा जमाए रहे।
जब देखनी पड़ी थी करारी हार
साल 2005 में बिहार विधानसभा चुनाव में राजद सरकार हार गई और 2009 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के केवल चार सांसद ही जीत सके। इसका अंजाम यह हुआ कि लालू को केन्द्र सरकार में जगह नहीं मिली। समय-समय पर लालू को बचाने वाली कांग्रेस भी इस बार उन्हें नहीं बचा नहीं पायी। दागी जन प्रतिनिधियों को बचाने वाला अध्यादेश खटाई में पड़ गया और इस तरह लालू का राजनीतिक भविष्य अधर में लटक गया।
सत्ता से दूर रहकर फिर किया चमत्कार, बना लिया महागठबंधन
बिहार में जदयू और भाजपा की गठबंधन की सरकार चल रही थी और सत्ता से दूर रहकर लालू को साल 2014 में हर हाल में चमत्कार चाहिए था। वो यह बात अच्छी तरह जानते थे कि कोर्ट के फैसले के बाद अगर नीतीश और मजबूत हुए तो उनकी राजनीति का एक तरह से अंत हो जाएगा।
इस बात को समझते हुए उन्होंने वक्त रहते पासा फेंका और भाजपा से नाराज चल रहे नीतीश को महागठबंधन का न्यौता दिया और सरकार बनते ही अपना उत्तराधिकारी के रूप में तेजस्वी और तेजप्रताप को मैदान में उतार दिया।
लालू ने अपने विरोधियों को ये अहसास करा दिया था कि उनका करिश्मा खत्म नहीं हुआ है। तेजस्वी ने भी राजनीति की गूढ़ नीति सीख ली और अपनी जगह बना ली। उसके नेतृत्व में राजद ने उपचुनाव में जीत हासिल की और बिहार में एक बार फिर लालू का जादू असर कर रहा है।
नहीं चल सका महागठबंधन, दूर हुए नीतीश
लालू ने जो महागठबंधन की नींव रखी वह चल नहीं पाई और इसमें दरार आ गई। एक वक्त एेसा आया जब नीतीश कुमार ने फिर से बीजेपी के साथ मिलकर बिहार में सरकार बना ली। महागठबंधन टूटने के बाद लालू ने राष्ट्रीय फलक पर अपनी धमक दी और सभी विपक्षी दलों को एकजुट कर नया गठबंधन की कवायद शुरू कर दी। लेकिन, इसी बीच चारा घोटाला के मामलों में उन्हें सजा हो गई और वे जेल चले गए। जेल में स्वास्थ्य बिगड़ने पर वे जमानत मिलने के बाद इलाज करा रहे हैं। पार्टी की कमान बेटे तेजस्वी के हाथों में है। लेकिल, लालू मैजिक जारी है।