पंजाब मेल थी मॉर्निग अलार्म, शटल की सीटी सुन पीते थे चाय
आदत आसानी से कहां जाती है। राजधानी में रेलवे लाइन के किनारे बसी बड़ी आबादी के जीवन में ट्रेनों की सीटी बस गई है।
पटना : आदत आसानी से कहां जाती है। राजधानी में रेलवे लाइन के किनारे बसी बड़ी आबादी के जीवन में ट्रेनों के गुजरने की आवाज इसी आदत की तरह शामिल है। पिछले 50 दिनों से ट्रेनों की थमी रफ्तार ने उनकी जिंदगी में एक सूनापन ला दिया है। मंगलवार को लंबे समय बाद जब पहली ट्रेन चली तो इस आबादी को फिर से उम्मीद बंधी है कि इनकी सुबह और शाम वापस ट्रेनों की सीटियों से गुलजार होगी।
खगौल के आदर्श रेलवे कॉलोनी में रहने वाली 21 वर्षीय छात्रा शीतल छाया कहती हैं, सुबह साढ़े चार बजे पंजाब मेल की आवाज से ही रोज पढ़ने के लिए उठती थी। अलार्म लगाने की जरूरत नहीं थी। लॉकडाउन में जब से ट्रेनें बंद हुई हैं, अलार्म लगा रही फिर भी नींद नहीं टूटती।
पटना साहिब स्टेशन के पास रहने वाले डॉ. विनोद अवस्थी कहते हैं, पटरियों का सन्नाटा कभी-कभी डराता है। घर के कमरे में भी खालीपन सा महसूस होता है। ट्रेनों की आवाज जैसे याद दिलाती कि फलां चीज का वक्त हो गया है।
करबिगहिया के धनंजय गुप्ता कहते हैं, शाम साढ़े पांच बजने खुलने वाली शटल की सीटी सुन चाय की तलब जग जाती थी। जिंदगी की कई शामें इन सीटियों के साथ ही चाय पी है। यह खालीपन अखरता है।
लोहानीपुर के शैलेश कुमार झा कहते हैं, ट्रेन की आवाज तो हमारे लिए थपकी की तरह है। बिना उसकी आवाज सुने, अच्छी नींद नहीं आती। कदमकुआं के सत्येंद्र बहादुर कहते हैं, 2008 में जब यहां घर बनवाया तो लगा ट्रेनों की आवाज से परेशानी होगी। शुरू में कुछ दिन ऐसा हुआ भी मगर अब तो यह जिंदगी का हिस्सा बन गई है।
लोहानीपुर की प्रिया ट्रेनों से जुड़ा रोचक किस्सा याद कर कहती हैं, एक बार चाचा जी घर आए। उन्हें नहीं पता नहीं था कि ट्रेन गुजरने पर घर का पलंग और बाकी सामान हिलता है। रात के वक्त करीब एक बजे चाचाजी जोर से भूत-भूत चिल्लाते हुए घर से बाहर निकल भागे थे। बाद में उन्हें बताया गया कि बगल से ट्रेन गुजरी है।
मीठापुर के सुरेंद्र जैन कहते हैं, हम भाई-बहन तो ट्रेनों की आवाज तक पहचान गए हैं। कई बार घर में शर्त लगती थी कि फरक्का जा रही या तूफान एक्सप्रेस। इन ट्रेनों ने हमें कई शर्ते जिताई हैं। उम्मीद है, वह पुराने दिन वापस लौटेंगे।