राहुल की रैली: बिहार की सियासी बिसात पर बिछे मोहरे और सीटों का गुणा-गणित
लंबे समय बाद बिहार के गांधी मैदान में कांग्रेस की रैली के कई संदेश हैं। पार्टी सुप्रीमो राहुल गांधी की इस रैली के बहाने बिहार की सियासत व सीटों के गुणा-गणित पर डालते हैं नजर।
पटना [मनोज झा]। पटना के गांधी मैदान में कांग्रेस की जन आकांक्षा रैली में शिरकत करने के लिए रवाना होते समय छत्तीसगढ़ के नये-नवेले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने खालिस बिहारी अंदाज में ताल ठोंकी कि एकदम गरदा उड़ा देंगे। बघेल का यह आत्मविश्वास इसलिए भी लाजिमी है, क्योंकि उनकी कांग्रेस पार्टी ने छत्तीसगढ़ में वाकई गरदा उड़ाते हुए 15 साल बाद सत्ता में शानदार वापसी की। ऐसे में सवाल यह है कि क्या आगामी लोकसभा चुनाव में बिहार में भी कांग्रेस कुछ ऐसा करने की स्थिति में है?
आत्मविश्वास बढ़ा पर अपने बूते कमर सीधी करने की स्थिति नहीं
यह ठीक है कि बिहार में इधर हाल के दिनों में कुछ दलों के नेताओं ने कांग्रेस का रुख किया है और पार्टी की संगठनात्मक सक्रियता भी बढ़ी है। तीन राज्यों में सत्ता में वापसी के बाद से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का आत्मविश्वास भी थोड़ा मजबूत दिखाई देता है। फिर भी ऐसा नहीं है कि पार्टी बिहार में लालू प्रसाद के राजद की बैसाखी को छोड़कर अपने बूते कमर सीधी करने की स्थिति में आ गई हो। यह सबको पता है कि बिहार के सियासी संग्राम में उसे राजद की जूनियर पार्टनर से ज्यादा बड़ी हैसियत खुद लालू या तेजस्वी यादव ही नहीं देने वाले हैं।
बिहार में कांग्रेस नहीं कर सकती बड़ी दावेदारी
बिहार का सियासी गणित कुछ इस कदर उलझा है कि यहां चाहकर भी कांग्रेस अपने स्तर से कोई बड़ी दावेदारी नहीं कर सकती। जातीय समूहों में अंदर तक बंटे इस प्रदेश के तमाम छोटे-बड़े क्षत्रपों के अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। गिनती की सीटों पर ही सही, जीतनराम मांझी, मुकेश सहनी या फिर हाल तक राजग के साथ रहे उपेंद्र कुशवाहा का अपना प्रभाव है।
अपने हाथ कटा बढ़ावा नहीं देगा राजद
उधर, महागठबंधन में सबसे बड़ी छतरी राजद की है, लेकिन उसकी मजबूरी यह है कि वह अपने हाथ काटकर कांग्रेस को बहुत कुछ नहीं दे सकता। वह ऐसा कतई नहीं चाहेगा कि बिहार में कांग्रेस उसके बराबर में आ खड़ी हो। सीटों के लिहाज से भी राजद की हर चंद कोशिश यही रहेगी कि वह कांग्रेस के मुकाबले कम से कम दोगुने स्थानों पर चुनावी मैदान में उतरे। राजद बिहार में हमेशा राजग गठबंधन या फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के समक्ष खुद को सबसे सक्षम विकल्प के तौर पर पेश करना चाहेगा। कुल मिलाकर इस बात में कोई संदेह नहीं कि महगठबंधन की ड्राइविंग सीट पर राजद ही रहेगा।
संभव नहीं राजग से अकेले पार पाना
दूसरी ओर, राजद को यह बात भी भलीभांति पता है कि कांग्रेस और अन्य घटक दलों को साथ लिए बिना वह राजग के विनिंग कॉम्बिनेशन से अकेले पार नहीं पा सकता। यही मुद्दा महागठबंधन के गुणा-गणित को थोड़ा पेचीदा भी बनाता है। जन आकांक्षा रैली के मंच पर महागठबंधन के घटक दलों के नेता एक साथ जरूर दिखे, लेकिन गांधी मैदान में राहुल, प्रियंका और सोनिया के पोस्टर थामे भीड़ सीटों की सौदेबाजी के गणित को उलझा भी सकती है।
छटपटाहट से बाहर निकलने की कोशिश
ऊपरी तौर पर यह रैली केंद्र में मोदी और बिहार में नीतीश सरकार के खिलाफ चुनावी ताल ठोंकने की कवायद बेशक दिखाई पड़े, लेकिन कहीं न कहीं यह कांग्रेस की उस छटपटाहट से बाहर निकलने की एक कोशिश भी है, जिसने उसे इस प्रदेश में करीब तीन दशकों से सत्ता समीकरणों को बनाने-बिगाड़ने की हैसियत से दूर धकेल दिया है।
राहुल को पीएम बनाना है तो चाहिए सीटें
कांग्रेस को पता है कि यदि राहुल गांधी को महागठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री पद का सबसे मजबूत दावेदार के तौर पर पेश करना है तो फिर झोली में सीटें भी चाहिए। दक्षिण में कनार्टक को अपवाद मान लें तो अन्य किसी बड़े राज्य में वह आमने-सामने की लड़ाई में नहीं है। हिंदी पट्टी में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान ही ऐसे बड़े राज्य हैं, जहां वह सर्वाधिक चुनावी लाभ की आस लगा सकती है। बाकी उत्तर प्रदेश में जिस तरह मायावती और अखिलेश यादव ने उसे ठेंगा दिखाया है, उसके मद्देनजर चुनावी बिसात पर फिलवक्त बिहार उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण राज्य बन गया है।
अब बैकफुट पर नहीं रहेगी कांग्रेस
यह ठीक है कि कल की रैली ने कांग्रेस को बिहार में राजद के बराबर ला खड़ा नहीं किया हो, लेकिन यह भी सच है कि सीट बंटवारे के समय अब वह एकदम से बैकफुट पर भी नहीं रहेगी। रैली के बाद प्रदेश कांग्रेस के कई बड़े नेता यह कहते सुने जा सकते हैं कि समझौता सम्मानजनक होगा। जाहिर है कि बात सीट बंटवारे की ही हो रही है।
कांग्रेस के प्रभाव क्षत्रों में तेजस्वी की यात्रा
उधर, तेजस्वी सात फरवरी से प्रदेश में राजद के बैनर तले गरीबी हटाओ, आरक्षण बढ़ाओ यात्रा निकालने जा रहे हैं। शायद यह संयोग हो, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि राजद की यह यात्रा उन्हीं लोकसभा क्षेत्रों में निकलने जा जा रही है, जहां कांग्रेस की भी मजबूत दावेदारी है। कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसमें दबाव की राजनीति भी सूंघ रहे हैं।
...परदे के पीछे भी छिपे रैली के चंद मकसद
गांधी मैदान में जुटी भीड़ को लेकर कांग्रेस भले उत्साहित दिख रही हो, लेकिन रैली के दो वाकयो का भी जिक्र यहां जरूरी होगा। मंच पर मौजूद विकासशील इंसान पार्टी के मुखिया मुकेश सहनी भले ही गले की खरास के चलते भाषण नहीं दे पाए हों, लेकिन कुछ लोग इसके अलग मायने भी निकाल रहे हैं। इसी प्रकार रैली के तुरंत बाद जीतनराम मांझी के हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के प्रवक्ता का इसे फ्लॉप बताना भी बहुत कुछ कहता है। बहरहाल, इतिहास गवाह है कि कई बार सियासी रैलियां परदे के पीछे के मकसद को भी साधने के लिए आयोजित की जाती हैं। सवाल है कि क्या कांग्रेस की जन आकांक्षा रैली के भी चंद मकसद अभी परदे के पीछे छिपे हैं?
(लेखक बिहार के स्थानीय संपादक हैं)