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विश्व रंगमंच दिवसः टिकट नहीं, ग्रांट के दम पर चल रहा पटना का थिएटर

कुछ भी हो और कैसे भी हो पर पटना का रंगमंच गुलजार है। यहां रोजाना नाटकों का मंचन होता है जिनकी साल में संख्या करीब तीन सौ तक पहुंचती है।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Wed, 27 Mar 2019 10:06 AM (IST)Updated: Wed, 27 Mar 2019 10:06 AM (IST)
विश्व रंगमंच दिवसः टिकट नहीं, ग्रांट के दम पर चल रहा पटना का थिएटर
विश्व रंगमंच दिवसः टिकट नहीं, ग्रांट के दम पर चल रहा पटना का थिएटर

पटना, जेएनएन। आज विश्व रंगमंच दिवस है। एेसे में बिहार की राजधानी पटना का जिक्र होना जरूरी है। देश भर में पटना रंगमंच की अपनी एक अलग पहचान है। पटना देश के उन गिने-चुने शहरों में शामिल है, जहां साल भर में 300 से अधिक नाटकों का मंचन होता है। हालांकि इसके बावजूद पटना में रंगमंच अब भी वह हैसियत हासिल नहीं कर पाया है कि लोग टिकट लेकर नाटक देखने पहुंचे। सरकारी ग्रांट के दम पर ही नाटकों का मंचन हो रहा है।

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एक जमाना था जब नाटकों का मंचन त्योहारों और मेलों में ही होता था। इसके अलावा किसी खास मौके या छुट्टी के दिन भी थिएटर की प्रस्तुति होती थी। बाद में ये प्रस्तुतियां रोज होने लगीं। आज पटना में साल भर में 300 से अधिक नाटकों का मंचन होता है। संख्या बढऩे का नुकसान भी रंगमंच हो उठाना पड़ा है। नाटकों की गुणवत्ता में गिरावट आई है। अति से पीड़ित रंगकर्मी सरकारी ग्रांट के भरोसे काम चला रहे हैं। जितना ज्यादा मंचन, उतना ज्यादा ग्रांट। दर्शकों की तालियों की जगह सरकारी ग्रांट नाटक की सफलता का पैमाना बनता जा रहा है। इसके कारण रंगमंच जनता से धीरे-धीरे कट भी रहा है।

1920 में रंगमंच की हुई शुरुआत

पटना में रंगमंच की शुरुआत 20 के दशक में हुई। उस दौर में शहर के गिने-चुने कलाकार बांग्ला एवं अंग्रेजी नाटकों का मंचन करते थे। न कोई प्रेक्षागृह था और न ही कोई बड़ा भवन। ज्यादातर नाटकों का मंचन खुले मैदान या सड़क किनारे बांस-बल्ले लगाकर होता था। दशहरा, दीपावली आदि खास मौके पर भव्य पंडाल बनाए जाते थे।

1923 में आए थे रवींद्रनाथ टैगोर

1923 में कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर रंगमंच के लिए पटना आए थे। गांधी मैदान के समीप एलफिस्टन सिनेमाहॉल में उनके नाटक का मंचन किया गया था। बहुत कम लोग जानते थे कि एलफिस्टन सिनेमाहॉल में पहले अंग्रेजी नाटकों का भी मंचन होता था। पारसी व्यवसायी मदान के अधिग्रहण के बाद यह एलफिंस्टन सिनेमाहॉल हो गया। पहले यहां मूक फिल्में दिखाई जाती रहीं। 1930 में मदान ने एलफिंस्टन सिनेमाहॉल को बेच दिया। इसके मालिक बदलते रहे लेकिन नाम नहीं बदला।

1956 में पृथ्वी राजकपूर ने किया था अभिनय

पटना के बाकरगंज में रूपक सिनेमाहॉल के पीछे 'कला मंचÓ था। पटना में पुराने समय में नाटकों का मंचन यहीं होता था। साल 1960 के आसपास मशहूर अभिनेता पृथ्वी राज कपूर ने भी यहां नाटक का मंचन किया था। कालिदास रंगालय बनने के बाद यहां नाटकों का मंचन कम होने लगा। आज यहां कई मकान बन गए हैं। हालांकि 'कला मंच' के नाम से यह जगह आज भी प्रसिद्ध है।

1961 में हुई बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना

वरिष्ठ रंगकर्मी गुप्तेश्वर कुमार बताते हैं कि 70 से अधिक नाटकों के लेखक एवं निर्देशक अनिल कुमार मुखर्जी ने 1961 में पटना के रंगकर्मियों को एकत्र कर बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना की। उन्होंने 'जय संतोषी माताÓ फिल्म के हीरो आशीष कुमार को भी पटना के रंगमंच पर उतारा गया।

गोबर-मिट्टी से लिपे हुए मंच पर होता था मंचन

1972 में कालिदास रंगालय के लिए बिहार आर्ट थिएटर को जमीन तो मिल गई मगर इमारत बनाने के लिए पैसे नहीं थे। तब खुले गोबर-मिट्टी से लिपाई किए हुए खुले मंच पर नाटकों का मंचन होता था। तब दर्शकों से ज्यादा कलाकार मौजूद होते थे। 1978 में भवन की नींव पड़ी। 1983 में कालिदास रंगालय का प्रेक्षागृह तैयार हुआ।

साहित्य सम्मेलन भी हुआ था मंचन

1955 में बिहार विभूति डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह के 69वें जन्म दिवस पर कई संस्थाओं ने मिलकर बिहार ङ्क्षहदी साहित्य सम्मेलन में कई नाटकों का मंचन किया। इसमें पटना सिटी के जगन्नाथ शुक्ल, करबिगहिया के चतुर्भुज, कालीबाड़ी के भौमिकजी, गोलघर के बैद्यनाथ जी, मीठापुर के एलएन राय, स्टेशन रोड के महावीर यादव और पोस्टल पार्क के प्यारे मोहन सहाय शामिल हुए।

आइएमए हॉल में होता था नाटक 

60-70 के दौर में पटना में सप्ताह में पांच दिन कालिदास रंगालय के खुले मंच पर नाटकों का मंचन होता था। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आइएमए) के हॉल में रविवार या अन्य छुट्टी के दिन नाटकों का मंचन किया जाता था। हालांकि ये परंपरा कुछ वर्षों बाद बंद हो गई।

1969 में नाट्य कला प्रशिक्षणालय की स्थापना

अनिल कुमार मुखर्जी ने पुनाईचक स्थित अपने घर में ही बिहार नाट्य प्रशिक्षणालय की स्थापना 1970 में की, और डिप्लोमा पाठ्यक्रम प्रारंभ कर दिया।

1970-90 का दौर नाटकों का स्र्वणकाल

 वरिष्ठ रंगकर्मी सुमन कुमार बताते हैं कि साल 1970 से 90 के बीच का समय पटना रंगमंच का स्वर्णकाल रहा। इस दौरान न केवल पटना में कालिदास रंगालय, प्रेमंचद रंगशाला, भारतीय नृत्य कला मंदिर, रवींद्र परिषद जैसे कई प्रेक्षागृहों का निर्माण हुआ बल्कि कई ऐतिहासिक नाटकों का भी मंचन हुआ।

कालिदास रंगालय है पटना का मंडी हाउस'

फिलहाल पटना का कालिदास रंगालय पटना के रंगकर्मियों का गढ़ है। सिर्फ यहां सालभर में 200-250 नाटकों का मंचन होता है। इसके अलावा प्रेमचंद रंगशाला, रवींद्र भवन और भारतीय नृत्य कला मंदिर में भी मंचीय प्रस्तुति होती है।

टेक्नोलॉजी का मिल जाए साथ तो बनेगी बात

पटना के रंगमंच का टेक्नोलॉजी का साथ मिल जाए तो रंगमंच और यहां कलाकारों दर्शकों एवं अपनी पहचान बनाने में अमिट छाप छोड़ेगा। शहर के रंगमंच का अपना समृद्ध  इतिहास रहा है। एक-दो नहीं दर्जनों बड़े कलाकार यहां के मंच से सफर की शुरूआत किए है और आज देश-दुनिया के पटल पर अपनी छाप छोड़ रहे है।

कई ने तय किया बॉलीवुड का सफर

पटना रंगमंच से जुड़े रहने वाले कई रंगकर्मी आज सिनेमा जगत में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं। इनमें संजय त्रिपाठी, आशीष विद्यार्थी, संजय मिश्र, रामायण तिवारी मनेर वाले, विनोद सिन्हा, अखिलेन्द्र मिश्र, विनीत कुमार, अजित अस्थाना, दिलीप सिन्हा, पंकज त्रिपाठी, विनीत कुमार आदि शामिल हैं।


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