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Bihar Vidhan Sabha Winter Session: जमीनी मुद्दों की तलाश में विपक्ष, ढुलमुल दिख रहीं तैयारियां

Bihar Vidhan Sabha Winter Session लोकसभा चुनाव के बाद बिहार विधानमंडल के शुरू हुए पहले अधिवेशन को लेकर विपक्ष की तैयारियों की झलक दिखाई देने लगी है। पढ़ें पड़ताल करती रिपोर्ट।

By Rajesh ThakurEdited By: Published: Sat, 23 Nov 2019 05:51 PM (IST)Updated: Sun, 24 Nov 2019 10:33 PM (IST)
Bihar Vidhan Sabha Winter Session: जमीनी मुद्दों की तलाश में विपक्ष, ढुलमुल दिख रहीं तैयारियां
Bihar Vidhan Sabha Winter Session: जमीनी मुद्दों की तलाश में विपक्ष, ढुलमुल दिख रहीं तैयारियां

पटना [मनोज झा]। लोकसभा चुनाव के बाद बिहार विधानमंडल के शुरू हुए पहले अधिवेशन को लेकर विपक्ष की तैयारियों की झलक दिखाई देने लगी है। चूंकि यह संक्षिप्त शीतकालीन अधिवेशन महज पांच दिनों का ही है, इसलिए उम्मीद थी कि विपक्ष सरकार को सदन में घेरने के लिए कुछ ठोस तैयारियों के साथ आएगा। खासकर प्रदेश से जुड़े ऐसे मुद्दे, जिसे लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा किया जा सके, सवाल पूछा जा सके। हालांकि विपक्ष के पास फिलहाल तो मुद्दों का टोटा ही दिख रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सदन के बाहर ही सही, विपक्ष ने पहले दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में फीस वृद्धि का मामला जोर-शोर से उठाया। इसे लेकर उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी और भाजपा की घेराबंदी की कोशिशें भी कीं।

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जेएनयू का मुद्दा कितना बड़ा और गंभीर...

अब जेएनयू में फीस वृद्धि का मुद्दा बिहार के लिए कितना बड़ा और गंभीर है, इसका आकलन तो विपक्ष को ही करना है, लेकिन जहां तक आम जनता का सवाल है तो उसमें इसे लेकर फिलहाल कोई हलचल या सरगर्मी नहीं दिखाई देती है। इक्का-दुक्का शैक्षणिक संस्थाओं को छोड़ दें तो इस मसले को लेकर पूरे प्रदेश में कहीं किसी प्रकार के विरोध के स्वर भी सुनाई नहीं पड़े हैं। और तो और, प्रदेश में विपक्ष के किसी नेता ने भी इससे पहले जेएनयू का मुद्दा सार्वजनिक रूप से शायद ही उठाया हो। ऐसे में सवाल स्वाभाविक है कि क्या विपक्ष के पास इस समय मुद्दों का अकाल है। यह सवाल इसलिए भी, क्योंकि सिर पर विधानसभा का चुनाव है। 

  

उपचुनाव में टूटा हुआ नजर आया विपक्ष का तारतम्य 

दरअसल, मुद्दों के सूखे से विपक्ष के जूझने के अपने अच्छे-भले कारण भी हैं। लोकसभा चुनाव में करारी पराजय के बाद का समय हार की पीड़ा से मिल-जुलकर उबरने का और घटक दलों के हौसले को फिर से बटोरने का था, लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। हार का ठीकरा एक-दूसरे के सिर पर फोड़ते हुए आपस में ही निशाने साधे जाने लगे। विपक्ष के महागठबंधन में नेतृत्व को लेकर भी तमाम बातें कही गईं। ऐसे माहौल के बीच प्रदेश में विपक्ष की अगुआई करने वाले राजद नेता तेजस्वी यादव सार्वजनिक मंच से लंबे समय के लिए अचानक गायब हो गए। जेल से ही सही, विपक्ष के लिए लालू प्रसाद यादव की नसीहतें और दिशा-निर्देश बंद हो गए। और तो और, राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस अध्यक्ष पद से राहुल गांधी के इस्तीफे ने विपक्ष के रहे-सहे हौसले को भी एक तरह से डिगा दिया। कांग्रेस के नेताओं-प्रवक्ताओं ने चुप्पी की लंबी चादर ओढ़ ली और विपक्ष के मंच पर एक तरह से सन्नाटा पसर गया। नतीजा यह हुआ कि कुछ महीने बाद हुए उपचुनाव में विपक्ष का तारतम्य टूटा हुआ नजर आया। कुछ सीटों पर तो आपस में ही ताल ठोकी गई। 

 

संतोषजनक नतीजों ने चेहरों पर लाई मुस्‍कान 

हालांकि बाद में उपचुनाव के संतोषजनक नतीजों ने विपक्ष के चेहरे पर मुस्कान जरूर लौटाई, लेकिन मोर्चाबंदी जैसी बात फिर भी नजर नहीं आई। शायद यही कारण है कि आज भी नीतीश की अगुआई वाली प्रदेश की राजग सरकार के खिलाफ विपक्ष के पास न तो कोई ठोस मुद्दा दिखाई देता है, न ही अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव के लिए कोई मजबूत रणनीति। बस, सारी कवायद महज इस पारंपरिक धारणा पर टिकी है कि विपक्ष का काम तो सरकार का विरोध करना है। चाहे उसके लिए जेएनयू जैसे अकादमिक या बौद्धिक मुद्दे को गरमाना ही क्यों न हो। इस नजरिये से देखें तो प्रदेश का विपक्ष लंबे समय से जड़-जमीन से जुड़े मुद्दों से भटका ही नजर आता है। लोकसभा चुनाव में भी तेजस्वी पूरे प्रचार के दौरान संविधान और आरक्षण पर खतरे जैसे हवा-हवाई मुद्दे उठाते रहे और शून्य पर सिमट गए। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो विधानसभा अधिवेशन के बाकी बचे चार दिनों में विपक्ष किसी मुद्दे को धार दे पाएगा, इसका संभावना कम दिखाई देती है। जहां तक मुद्दों को उठाने, गरमाने और उन्हें समाधान के रास्ते पर ले जाने का सवाल है तो इस इस मामले में नीतीश ने अब तक बेहद सधे हुए कदम बढ़ाए हैं। 

बाधा पार करते जा रहे नीतीश 

लालू-राबड़ी राज में जिन समस्याओं को लेकर बिहार पूरे देश भर में बदनाम हुआ, नीतीश ने प्राथमिकता के तौर पर उन्हीं मुद्दों को समाधान की राह दिखाई। चाहे प्रदेश का पिछड़ापन हो या अपराध या फिर फिर लालू राज की जातीय गोलबंदियां, नीतीश एक के बाद एक बाधा को पार करते गए। बेशक यह नहीं कहा जा सकता है कि बिहार में सब कुछ बदल गया है और वह विकसित राज्यों की कतार में आ खड़ा हुआ है, लेकिन नीतीश की अगुआई में राजग सरकार के दौरान कोशिशें होते हुए दिखाई देती हैं। यही बात सत्तापक्ष पक्ष की ताकत, जबकि विपक्ष के लिए चुनौती है। ऐसे में इतना तय लग रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में भी विपक्ष को इस चुनौती से रू-ब-रू होना पड़ेगा।

[लेखक दैनिक जागरण बिहार के स्थानीय संपादक हैं] 


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