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Worls Cup Cricket: हम चौके-छक्के पर बजाएंगे ताली, पर 36 साल से बिहार की झोली खाली

इंडिया तीसरा वर्ल्ड कप जीतने की चाहत में आज से किक्रेट के महाकुंभ में शामिल हो जाएगा। लेकिन बिहार के अंदर एक टीस रहेगी। अपने प्लेयर के न होने की।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Thu, 30 May 2019 09:59 AM (IST)Updated: Thu, 30 May 2019 10:56 PM (IST)
Worls Cup Cricket: हम चौके-छक्के पर बजाएंगे ताली, पर 36 साल से बिहार की झोली खाली
Worls Cup Cricket: हम चौके-छक्के पर बजाएंगे ताली, पर 36 साल से बिहार की झोली खाली

पटना [अरुण सिंह] इंग्लैंड में गुरुवार से क्रिकेट के महाकुंभ शुरू हो रहा है। पूरा भारत क्रिकेट के फीवर में है। पटना और बिहार में भी क्रिकेट वर्ल्ड कप को लेकर खूब रोमांच है। विश्व कप के मैच में हर चौके-छक्के और विकेट गिरने पर हमलोग तालियां तो बजाएंगे, लेकिन अपनी झोली खाली रहने की टीस भी महसूस जरूर करेंगे। टीस इस बात की रहेगी कि 36 साल के लंबे अंतराल के बावजूदं हमलोग आइसीसी की इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में एक विश्व विजेता क्रिकेटर नहीं दे सके। 23 साल पहले 27 फरवरी 1996 को आयोजित हुए जिंबाब्वे और केन्या के बीच विश्व कप मैच के बाद कोई अंतरराष्ट्रीय आयोजन नहीं करवा सके।
सबकुछ तो है अपने पास। मोइनुल हक स्टेडियम अब भी है, जहां वर्ल्ड कप समेत कई अंतरराष्ट्रीय मैच हुए। प्रतिभावान क्रिकेटरों की फौज है, जिन्होंने राज्य क्रिकेट के 18 साल लंबे वनवास के बाद भी हौसला नहीं गंवाया। फिर ऐसा क्या हुआ कि बिहार भद्रजनों के इस खेल में पिछड़ता गया और तमिलनाडु (त्रिनुलवैली गांव) के विजय शंकर, हरियाणा (जिंद) के युजवेंद्रा सिंह चहल, बंगाल (जोनानगर) के मुहम्मद शमी, सौराष्ट्र (नवागम खेड़) जैसे छोटे जगह से निकले रवींद्र जडेजा लंदन में परचम लहाराने को तैयार हैं।

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 18 साल बाद खत्म हुए वनवास पर लगा ग्रहण
वर्ष 2000 में हुए बिहार विभाजन के साथ ही राज्य में क्रिकेट का वनवास शुरू हो गया था। बिहार क्रिकेट एकेडमी (बीसीए) का मुख्यालय जमशेदपुर में रहने और कीनन स्टेडियम को ज्यादा तवज्जो देने से अपने यहां क्रिकेट का इंफ्रास्ट्रक्चर खत्म हो गया। रही-सही कसर झारखंड को मान्यता देकर और बिहार को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) की मुख्य धारा से अलग कर पूरी हो गई। 18 वर्षों की लंबी लड़ाई के बाद पिछले साल बिहार को पूर्ण मान्यता मिली और रणजी समेत बीसीसीआइ के सभी प्रमुख टूर्नामेंटों में खेलने का मौका मिला। आशुतोष अमन जैसे क्रिकेटर ने एक रणजी सत्र में 68 विकेट लेकर बिशन सिंह बेदी के 44 साल पुराने रिकॉर्ड को तोड़ा और साबित किया कि अब भी यहां की मिट्टी में काफी दम है।
अक्टूबर 2018 में बिहार क्रिकेट एसोसिएशन ने लगभग 50 लाख खर्च कर मोइनुल हक स्टेडियम को राष्ट्रीय स्तर का बनाया, जहां चार रणजी, दो-दो अंडर-23 और अंडर-19 के मैच हुए। सब कुछ सही चल रहा था कि एक निजी चैनल पर स्टिंग ऑपरेशन में बिहार के कोच और बीसीए के पदाधिकारी की ओर से पैसे लेने के कबूलनामे के साथ क्रिकेट पर फिर से ग्रहण लगना शुरू हो गया। पूर्व मुख्य सचिव अंजनी कुमार सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में जो मोइनुल हक स्टेडियम बीसीए को शुल्क के साथ रखरखाव और उपयोग के लिए दिया गया था। उसका आवंटन वर्तमान खेल मंत्री ने आनन-फानन में रद कर दिया।
दूसरे राज्य में तैयारी शुरू, अपने यहां स्टेडियम का टोटा
उस समय एमओयू की प्रक्रिया भी अंतिम दौर में थी, जिसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। बीसीए को स्टेडियम छोडऩा पड़ा और खिलाड़ी घर पर बैठने को मजबूर हो गए। मोइनुल हक स्टेडियम के पांच टर्फ विकेट खराब हो चुके हैं, जबकि आउटफील्ड में 12 इंच तक घास उग गई है। बीसीए को हेमन ट्रॉफी और रणधीर वर्मा जैसे मुख्य घरेलू टूर्नामेंट खगडिय़ा, भागलपुर में कराने पड़े। अगले सत्र में रणजी समेत अन्य बीसीसीआइ के टूर्नामेंट के लिए दूसरे राज्यों में तैयारी शुरू हो चुकी है, लेकिन अपने यहां अब भी मैदान बनाने की कवायद चल रही है। बीसीसीआइ के सहयोग से नौबतपुर में बनने वाले दो निजी मैदान जब तैयार होंगे, तब तक आगामी सत्र निकल जाएगा।

प्रदर्शनी मैच तक सिमटा ऊर्जा स्टेडियम
विकल्प के रूप में राजधानी में बिहार विद्युत बोर्ड के सहयोग से बने ऊर्जा स्टेडियम मौजूद है, जहां पिछले सत्र में बीसीसीआइ के अंडर-23, अंडर-19 के दो-दो और अंडर-16 में एक मैच हुए। इस स्टेडियम का आवंटन एक दिन के लिए 11,800 रुपये और डे-नाइट के लिए 35 हजार 600 रुपये है, जो हर किसी के बस की बात नहीं है। यहां धौनी क्रिकेट एकेडमी भी खुली, पर कुछ माह बाद ही बंद भी हो गई। इसके साथ ही अपने बच्चों को धौनी बनाने की उम्मीद पाले अभिभावकों के अरमानों पर पानी फिर गया। अब यह स्टेडियम चंद घरेलू टूर्नामेंट और प्रदर्शनी मैच तक सिमट कर रह गया है।
क्रिकेट पर हावी राजनीति
मैदान की कमी से ही नहीं, बल्कि बिहार क्रिकेट में राजनीति ज्यादा होने का खामियाजा भी यहां के क्रिकेटरों को उठाना पड़ा है। क्रिकेट का भला कैसे हो, इसकी चिंता छोड़ लोग एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे हैं। जुलाई में बीसीए का चुनाव होगा। उम्मीद है, तब जाकर उसके पदाधिकारी स्वतंत्र रूप से बिहार क्रिकेट को मूर्त रूप दे सकेंगे।
नहीं रुका क्रिकेटरों का पलायन
बिहार से क्रिकेट मुख्यालय झारखंड चले जाने से यहां के कई सितारों को असमय संन्यास लेना पड़ गया। कुछ ने वक्त के साथ समझौता कर झारखंड और अन्य राज्य जाना मुनासिब समझा। सबा करीम, सुब्रतो बनर्जी, कीर्ति आजाद, इशान किशन की उपलब्धियों पर हम भले ही इतरा लें, लेकिन उन्हें कामयाबी मिली बंगाल, दिल्ली और झारखंड जाकर। इस फेहरिस्त में शाहबाज नदीम, अनुकूल राय जैसे दर्जनों क्रिकेटर शामिल हैं। केशव कुमार, बाबुल, समर कादरी जैसे रणजी क्रिकेटरों ने फिर से अपने राज्य से खेलने का फैसला किया है। अब बीसीए की जिम्मेदारी बनती है कि वह इन क्रिकटरों में वह विश्वास पैदा करे कि उन्होंने घर वापसी कर कोई गलती नहीं की है। 

 क्रिकेट में ऐसे पिछड़ा बिहार
- 2000 में बिहार का विभाजन हुआ और तत्कालीन अध्यक्ष एसी मुथैया ने बिहार के साथ झारखंड को भी मान्यता दे दी। सितंबर 2000 में बीसीसीआइ की वार्षिक बैठक में बिहार ने वोट मुथैया के पक्ष में डाला, लेकिन जीत उनके विरोधी जगमोहन डालमिया की हुई। फिर क्या था, डालमिया ने इंफ्रास्ट्रक्चर का हवाला देकर बिहार को बीसीसीआइ से बेदखल कर दिया। उसी समय से बिहार क्रिकेट का वनवास शुरू हुआ।
- 2002 में बीसीए के सामानान्तर एसोसिएशन ऑफ बिहार क्रिकेट (एबीसी) का गठन कीर्ति आजाद ने किया। दो संघों के होने से विवाद इतना बढ़ा कि राज्य में क्रिकेट मैदान में नहीं, बल्कि कोर्ट में खेले जाने लगा। मान्यता के लिए चेन्नई कोर्ट में बीसीसीआइ के खिलाफ केस कर दोनों संघों ने अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर दी और बोर्ड ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि पहले आप कोर्ट में फैसला कर लें।
- 2003-04 बिहार के नाम से झारखंड और बिहार की संयुक्त टीम ने अपना अंतिम मैच प्लेट ग्रुप में दिसंबर में त्रिपुरा के खिलाफ खेला। इस टीम के कप्तान राजीव कुमार राजा था, जबकि भारतीय टीम के पूर्व कप्तान महेन्द्र सिंह धौनी भी टीम में थे।
- 15 अगस्त 2004 को बिहार की जगह घरेलू क्रिकेट टूर्नामेंट में झारखंड के नाम की इंट्री हुई। दो संघों के बीच तकरार अभी चल ही रहा था कि 2006-07 में बीसीए से अलग होकर कुछ लोगों ने क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार (सीएबी) बना ली। तीन संघों की लड़ाई के बीच 2008 में जब शशांक मनोहर बीसीसीआइ के अध्यक्ष बने तो उन्होंने लालू प्रसाद यादव वाली बीसीए को एसोसिएट राज्य का दर्जा दे दिया।
- 2009 में बीसीसीआइ से बिहार को 50 लाख रुपये की राशि और एक करोड़ रुपये का उपक्रम इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप करने को मिला। सामान मिलते ही बीसीए में आपसी विवाद भी शुरू हो गया।

- 2011 में बीसीए के तत्कालीन अध्यक्ष लालू प्रसाद ने इस विवाद को देखते हुए बीसीए की कमेटी को भंग कर 11 सदस्यीय तदर्थ कमेटी बनाई, जिसमें सभी संघों के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया। हालांकि यह कमेटी भी ज्यादा दिन नहीं चली और उसके एक सदस्य अजय नारायण शर्मा ने बगावत कर दी और न्यायालय के शरण में चले गए।
- 2015 मेें सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद बीसीए में चुनाव को लेकर सहमति बनी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षक की देखरेख में चुनाव हुआ, जिसमें अब्दुल बारी सिद्दीकी अध्यक्ष और रविशंकर प्रसाद सचिव बने।
- 2016 में लोढ़ा कमेटी के गठन के बाद उसकी सिफारिशों के आलोक में बिहार सरकार के मंत्री रहने के कारण सिद्दीकी स्वत : बीसीए अध्यक्ष पद से मुक्त हो गए।
- 2016 में ही पटना को 19 साल के बाद कूच विहार ट्रॉफी की मेजबानी मिली और बीसीसीआइ ने उसी समय आश्वस्त कर दिया था कि बिहार को जल्द पूर्ण मान्यता मिलेगी।
- 2018 जनवरी माह में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार को पूर्ण मान्यता दे दी, जिसके बाद उसके रणजी समेत अन्य टूर्नामेंट खेलने का रास्ता साफ हुआ।

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