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बिहार संवादी: भाषा पर हुई बहस तो उभर आए कई सुलगते सवाल

दैनिक जागरण के साहित्‍य उत्‍सव 'बिहार संवादी' में भाषा पर बहस हुई तो कई सुलगते सवाल उभर कर सामने आए। पाठ्यक्रम, प्रेम से लेकर भाषा के वर्चस्व तक पर चर्चा हुई।

By Ravi RanjanEdited By: Published: Sun, 22 Apr 2018 08:39 PM (IST)Updated: Sun, 22 Apr 2018 08:39 PM (IST)
बिहार संवादी: भाषा पर हुई बहस तो उभर आए कई सुलगते सवाल
बिहार संवादी: भाषा पर हुई बहस तो उभर आए कई सुलगते सवाल

पटना [एसए शाद]। दो दिवसीय 'बिहार संवादी' कार्यक्रम का अंतिम दिन साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों सहित हर क्षेत्र के विशेषज्ञों के लिए परिचर्चा को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी छोड़ गया। भाषा पर बहस हुई तो कुछ ऐसे सवाल उभर आए जो दुनिया को परेशान किए हुए हैं। चाहे भाषा के वर्चस्व की बात हो या उसे उचित स्थान देने का मसला। प्रेम पर हुई चर्चा ने तो दलाई लामा के वे शब्द याद दिला दिए जो उन्होंने पिछले वर्ष राजगीर में एक कार्यक्रम में कहे थे। उन्होंने कहा था कि विश्व में बढ़ती ङ्क्षहसा के कारण लोग खौफजदा हैं, प्रेम ही उनका यह खौफ दूर कर सकता है। भाषा और प्रेम को लेकर कई मान्यताएं भी टूटीं।
'बिन बोली भाषा सून?', यह एक ऐसा विषय था जिसमें मैथिली, भोजपुरी, मगही और अंगिका की भूमिका पर चर्चा हुई। वक्ताओं ने अपनी भाषा के पक्ष में अपने तरकश से सभी तीर निकाले। यह बड़ी बात रही कि बहस का मिजाज कभी तीखा नहीं हुआ। परन्तु भाषा के वर्चस्व को लेकर जो सवाल उभरे उसने सेलिग हैरिसन की पुस्तक 'डैंजरस डिकेड्स' में व्यक्त चिंता से अवगत करा दिया। लेखक ने कहा है कि भारत को भाषा को लेकर झड़प का भी सामना करना पड़ सकता है। बेल्जियम में ऐसा हो चुका है।
हाल ही में स्पेन में कैटेलोनिया को लेकर संघर्ष हुआ है। श्रीलंका में तमिल या फिर इराक में कुर्दिश का उदाहरण हमारे सामने है। मगर संतोष यह रहा कि सभी चारों वक्ताओं ने अपनी बातें तो रखीं मगर दूसरों की भी सुनीं। उन्होंने क्लिफोर्ड गीट्ज की 'इंटेग्रेटिव रिवोल्युशन'  में व्यक्त चिंता को नकार दिया जिसमें उन्होंने कहा है कि भाषाई विवाद समाज के लिए एक बड़ा खतरा है।
सत्र में यह मान्यता भी टूटी कि भाषा के लिए लिपि और स्क्रिप्ट आवश्यक हैं। वैसे, यह बात भाषा के अप्रासंगिक करार दिए गए विज्ञान 'फिलोलॉजी' को दरकिनार कर 'लिंग्विस्टिक्स'  को दुनिया के सामने लाने वाले नॉम चौम्स्की स्थापित कर चुके हैं।
प्रेम पर एक अलग सत्र में बहस हुई, जिसका विषय 'मोहब्बत, मोहब्बत, मोहब्बत' रखा गया था। प्रेम को परिभाषित करते समय यह बात भी स्पष्ट की गई कि इसे लेकर पितृसत्ता की सोच सही नहीं है। कोई यह भ्रम नहीं पाले कि प्रेम में देह की चाहत नहीं होती। इस बात पर सभी ओर से सहमति के सुर उभरे कि केवल आत्मा से प्रेम नहीं होता।
बहस के दौरान प्रेम पत्र के प्रचलन खत्म होने से लेकर 'इमोशन' को एक अंगुली से डिलीट कर देने तक चर्चा हुई। इस बात पर सभी एकमत थे कि प्रेम ही समाज में बढ़ते तनाव को खत्म करेगा, खासकर युवाओं के अवसाद को। कार्यक्रम की शुरुआत 'विश्वविद्यालयों में हिन्दी' विषय पर विशेष सत्र से हुई। बात यहां तक आ गई कि भाषा पर दिल्ली का वर्चस्व है। यूजीसी पर पाठ्यक्रम बदलने के लिए दबाव भी बनाने की आवश्यकता है।

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एक अन्य सत्र में 'रचनात्मकता का समकाल' विषय पर विमर्श हुआ। यह बात सामने आई कि अधिकांश लेखक आज रीडर्स से कटे हैं। इससे पूर्व 'बिहार की कथाभूमि' विषय पर तीखी बहस हुई।  चिंता जताई गई कि हम सड़ी हुई सामंती व्यवस्था पर खड़े हैं जिसकी जड़ में जाति है। वक्ताओं ने साहित्य से नेताओं की बढ़ती दूरी पर भी चिंता जताई। यहां तक कहा गया कि मंडल कमीशन की अनुशंसाएं लागू हुईं तो इसने जातिवाद को और मजबूत किया। यह सवाल भी उन चुभते सवालों में से एक था जो 'बिहार संवादी' ने दुनिया के सामने विमर्श के लिए रख दिया है।


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