बिहार संवादी: जिंदगी और मौत के दरम्यां इक खलिश है मोहब्बत
बिहार संवादी में आखिरकार मोहब्बत को भी एक ठांव मिली। दूसरे दिन के दूसरे सत्र में। दिल से जुबां के एकसार होते ही बातें हमनशीं हो गईं।
पटना [विकाश चंद्र पांडेय]। बिहार संवादी में आखिरकार मोहब्बत को भी एक ठांव मिली। दूसरे दिन के दूसरे सत्र में। दिल से जुबां के एकसार होते ही बातें हमनशीं हो गईं। कई फसाने अपनी ही जिंदगी के पहलू जान पड़े। सुख-दुख से लेकर लुत्फ-ओ-सितम तक। लब-ओ-लुआब यह कि जिंदगी महज तीन चीजों से चलती है- मोहब्बत, मोहब्बत, मोहब्बत। जो बेबाक है, वही सही। बातों की गठरी के साथ दिल की गिरहें भी खुल गईं। मोहब्बत के नाज-ओ-अंदाज पर जुबां फिसली नहीं कि आंखें तमतमा उठीं। बावजूद इसके चेहरे पर सुकून का भाव रहा, क्योंकि मोहब्बत का रंग तारी था और संवाद का दौर जारी।
...और भी दुख हैं जमाने में
फैज अहमद फैज के हवाले से भावना शेखर मोहब्बत का जिक्र छेड़ती हैं। माहौल तनिक कशमकश वाला बना आया है। आगाज में ही अंजाम की पैमाइश, '...और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा/ राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा/ मुझसे पहले-सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग।' गनीमत यह कि बाद फैज के केदारनाथ अग्रवाल और अज्ञेय की काव्य-पंक्तियों का जिक्र हो जाता है, लिहाजा बातें लड़खड़ाती नहीं। इश्क का जादू चल जाता है। वैसे भी मोहब्बत रफ्ता-रफ्ता ही होती है। आप से तुम और तुम से तू होने तक कई उतार-चढ़ाव होते हैं। उसके बाद ही दो दिल एक जान होते हैं।
गीताश्री के इस अंदाज-ए-बयां से यकीन पुख्ता होता है कि जिंदगी और मौत के दरम्यां मोहब्बत एक खलिश है। एक ऐसी खलिश, जिसके पहलू में छांव भी है और धूप भी। इस धूप और छांव के द्वंद्व में ही जिंदगी है और मोहब्बत के बगैर जिंदगी बेमानी। गिङ्क्षरद्रनाथ झा का एतबार कुछ ऐसा ही है। मनोभाव से रत्नेश्वर प्रेमाकुल हैं और प्रेम के दिव्य बखान से मुग्ध। नख से लेकर शिख तक प्रेम-रस में लबालब। यह इश्क-ए-हकीकी है। जित देखूं, तित लाल।
इक मोहब्बत के रंग कई
मोहब्बत महज स्याह-सफेद नहीं। इसके कई रंग हैं। कई आधार और कई अवलंब भी। एक से दूसरे दौर की मोहब्बत कुछ अलहदा होती है। भावना शेखर स्थूल और सूक्ष्म को गड्मगड करते हुए अपनी बात कहती हैं। भारतेंदु काल में मोहब्बत का मतलब था आजादी और स्वाधीनता। मां से अपनी दुल्हन (आजादी) लाने की बात कह भगत सिंह घर से निकल गए। छायावाद के दौर में प्रेम का रूप आध्यात्मिक हो गया। बच्चन को मधुशाला से प्रेम रहा। इसी गड्मगड में मोहब्बत की पटरी से उतरकर बातें प्रेम के रास्ते पर आ जाती हैं।
मोहब्बत में मशरूफ होकर
प्र म के वशीभूत गिरिंद्रनाथ झा को घर के रास्ते लुभाते हैं। परिवार-परंपरा लौट आने की प्रेरणा देते हैं। यह स्थानीयता से सन्नद्ध प्रेम है। रत्नेश्वर प्रेम को योग करार देते हैं। कहते हैं कि साधना से इस योग में शामिल हो गए तो भीतर-ही-भीतर नृत्य कर रहे होते हैं। ऐसे पल को जीने के दावे के साथ वे प्रतिफल का बखान कर रहे। उस वक्त नमक और चीनी का स्वाद ही खो गया था।
इस स्वाद पर गीताश्री के सवाल बघार जैसे। जब हम ही नहीं बचेंगे तो किससे मोहब्बत करोगे? जब इंसान से ही मोहब्बत करना नहीं आया तो उपादानों से खाक करोगे? बहरहाल मोहब्बत की बातें नए रास्ते पर चल निकली हैं। इस रास्ते पर महज कौल-कसम से करार नहीं, निखालिस दरकार है। एक-दूसरे के लिए प्रतिबद्धता की दरकार। साथ जीन-मरने की दरकार। वादों पर अमल और दावों पर मुस्तैदी की दरकार।
देह के रास्ते दिल तक
मन तो जिए-भोगे को जानता है। जैसा गुजरेगा, वैसा असर दिखेगा। माहौल से मोहब्बत अलग कैसे हो सकती है। किसी बहाने से ही सही, गिरिंद्रनाथ जब यह कहते हैं कि 'गांवों में तो प्रेम अंधेरे में होता है' तो वह महज एक तलब नहीं, मजबूरी भी है। उम्मीद यह कि खराब चीजों को भी प्रेम ही ठीक कर सकता है। बदलाव भी प्रेम से ही होगा।
रत्नेश्वर की यह बात (प्रेम से ही सबसे ज्यादा घृणा होती है) देर तक सोचने के लिए मजबूर कर देती है। आखिर इस मानसिकता की वजह भी तो माहौल ही होगा। शायद इसलिए भावना शेखर पूछती हैं कि प्रेम क्या मिलावटी हो गया है? प्रेम के पीछे क्या बेवफाई है? रत्नेश्वर समाधान सुझाते हैं। वैवाहिक बंधन। यह खूबसूरत बंधन है। विरोधाभास यह कि जहां बंधन है, वहां मोह है। वहां प्रेम है ही नहीं। प्रेम तो उन्मुक्तता है! इस चौकड़ी से उम्मीद किए बगैर सटीक जवाब खुद ढूंढऩा होगा।