Emergency @ 45 Years: इंदिरा के खिलाफ खड़े रहे लालू आज कांग्रेस के साथ, मरने की फैली थी अफवाह
Emergency 45 Years लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस पार्टी की नेता इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ झंडा उठाया। आपातकाल में जेल गए लेकिन आज वे उसी कांग्रेस के साथ खड़े हैं।
पटना, डिजिटल डेस्क। Emergency @ 45 Years: राष्ट्रीय जनता दल (RJD) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) आज भले ही महागठबंधन (Mahagathbandhan) में कांग्रेस (Congress) के साथ हैं, लेकिन यह भी सच है कि उनकी राजनीतिक पैदाइश इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के आपातकाल (Emergency) व कांग्रेस (Congress) के विरोध के साथ हुई थी। जयप्रकाश आंदोलन (JP Movement) के दौरान वे छात्र नेता (Student Leader) थे। वे आपातकाल के दौरान गिरफ्तार होकर जेल भी गए। उस दौर में एक बार सेना की पिटाई में उनके मरने की अफवाह (Rumor of Death) भी फैल गई थी।
छात्र जीवन से ही राजनीति में रहे सक्रिय
लालू प्रसाद यादव छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय रहे। साल 1971 के पटना विवि छात्र संघ के चुनाव में जीत कर वे संघ के महासचिव बने। 1973 में वे पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष बने। साल 1974 में वे जयप्रकाश नारायण की अगुआई वाले छात्र आंदोलन से जुडे।
आपातकाल के दौरान फैली मरने की अफवाह
आपातकाल के आंदोलन के दौरान एक बार तो लालू प्रसाद यादव के मरने की अफवाह फैल गई थी। 18 मार्च 1974 को आंदोलन हिंसक हो गया था। सड़कों पर उतर आए छात्रों में लालू भी शामिल थे। सरकार भी आंदोलन को कुचलने के लिए प्रतिबद्ध थी। आंदोलन को दबाने के लिए सडकों पर सेना को उतार दिया गया। उस दिन सड़क पर आंदोलनकारियों की सेना ने जमकर पिटाई की। इसके बाद यह अफवाह फैल गई कि सेना की पिटाई में लालू यादव की मौत हो गई है।
आपातकाल की याद को बेटी का नाम रखा मीसा
आपातकाल (Emergency) के दौरान वे आंतरिक सुरक्षा कानून (MISA) के तहत गिरफ्तार कर लिए गए। उस दौरान जब उनकी बेटी का जन्म हुआ तो उन्होंने नाम रखा- मीसा। तब लालू कहते थे कि यह नाम उन्हें इंदिरा के आपातकाल व इसमें जेल यात्रा की याद दिलाता रहेगा।
आपातकाल के बाद बने सांसद, बढ़ा राजनीतिक कद
आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनाव (LS Election) में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ और देश में जनता पार्टी (Janata Party) की सरकार आई। साथ ही बिहार में लालू का राजनीतिक कद भी बढ़ा। कालक्रम में वे मुख्यमंत्री (CM) बने। आम आदमी से कनेक्ट करता एक सादगीपसंद राजनता- यही उनकी पहचान थी।
सीएम बनने के बाद रहने के लिए चुना चपरासी क्वार्टर
पत्रकार संकर्षण ठाकुर अपनी किताब 'सबआल्टर्न साहेब- बिहार एंड द मेकिंग ऑफ़ लालू यादव' में लिखते हैं कि मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी लालू अपने भाई के चपरासी वाले घर में रहते थे। यह कहने पर कि इससे प्रशासनिक और सुरक्षा की परेशानियां होंगी, साथ ही वेटरिनरी कॉलेज में रहने वालों की ज़िंदगी भी मुश्किल हो जाएगी, वे जवाब देते थे, ''हम चीफ़ मिनिस्टर हैं, हम सब जानते हैं। जैसा हम कहते हैं, वैसा ही कीजिए।''
राजनीतिक सफर में छिपी कांग्रेस के साथ की मजबूरी
सवाल उठता है कि जिस कांग्रेस शासन के आपातकाल के विरोध में लालू खड़े हुए, जिसकी याद को ताउम्र जिंदा रखने के लिए अपनी बेटी का नाम मीसा (भारती) रखा, आज उसके ही साथ क्यों व कैसे हैं? सवाल यह भी है कि आम आदमी से जुड़ा एक सादगी पसंद राजनेता कालक्रम में भ्रष्टाचार के आरोपों से कैसे घिरा? चारा घोटाले में सजायाफ्ता होकर जेल कैसे पहुंच गया? इसका जवाब लालू के राजनीतिक सफर में है।
ऐसा रहा गरीबी में जन्म से छात्र नेता तक का सफर
लालू यादव का जन्म गोपालगंज जिले के फुलवरिया गांव में एक गरीब परिवार में हुआ। भाई मुकुंद चौधरी ने उन्हें पटना लाकर शेखपुरा मोड़ के मध्य विद्यालय में पांचवीं कक्षा में नामांकन करा दिया। उनका परिवार पास में ही वेटरिनरी कॉलेज के एक कमरे के शौचालयविहीन क्वार्टर में रहता था। शौच के लिए खेत में जाना मजबूरी थी, लालटेन के लिए केरोसिन तेल खरीदने का पैसा नहीं था तो कॉलेज के बरामदे में पढ़ना पड़ता था। एक वह भी दौर आया जब पढ़ाई जारी रखने के लिए लालू को रिक्शा चलाने व चाय की दुकान पर मजदूरी करने तक की मजबूरी आई। बचपन में डॉक्टर बनने का सपना देखते थे, लेकिन एलएलबी किया। पटना कॉलेज के दिनों में छात्र संघ की राजनीति से जुड़कर जयप्रकाश नारायण के करीब पहुंचे।
आपातकाल के बाद जीते लोकसभा-विधानसभा चुनाव
साल 1975 में लालू प्रसाद यादव को मीसा (कानून) के तहत गिरफ्तार किया गया। वे 1977 तक वे जेल में रहे। जेल से रिहाई के बाद जनता पार्टी के टिकट पर उन्होंने लोकसभा चुनाव जीता। तब 29 साल की उम्र में सांसद बनकर सबसे कम उम्र के सांसद का रिकॉर्ड अपने नाम दर्ज कराया। आगे 1980 में लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस प्रत्याशी को पराजित कर बिहार विधानसभा में एंट्री ली। 1985 में वे दोबारा विधायक बने तथा 1989 तक बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे।
1990 में बने मुख्यमंत्री, बनाई धर्मनिरपेक्ष छवि
साल 1990 में वे बिहार के मुख्यमंत्री बने। 23 सितंबर 1990 को उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी की राम रथयात्रा के दौरान समस्तीपुर में गिरफ्तार कर खुद को एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में स्थापित किया। फिर 1995 में भी भारी बहुमत से विजयी रहे।
आज राजनीति की मुख्य धारा से दूर, पर विपक्ष की धुरी
कई पिछड़ी जातियों के समर्थन के बावजूद लालू प्रसाद यादव की राजनीति मुस्लिम और यादव समीकरण के इर्द-गिर्द घूमती रही। इस एमवाइ समीकरण से उपजी सोशल इंजीनियरिंग के कारण उनकी छवि 'गरीबों का मसीहा' की बनी और इसी के बल पर उन्होंने बिहार में अपनी जड़ें जमाई। हालांकि, कालक्रम में चारा घोटाला में फंसकर उनकी कुर्सी चली गई। आगे उन्होंने केंद्र की राजनीति में जगह बनाकर रेलमंत्री का पद भी संभाला, लेकिन धीरे-धीरे उनपर कसते गए कानूनी शिंकंजे ने उन्हें सलाखों के पीछे धकेल दिया। यह लालू ही हैं कि आज राजनीति की मुख्य धारा से दूर होकर भी विपक्ष की राजनीति की धुरी बने हुए हैं।
चारा घोटाला के साथ धीरे-धीरे हाशिए पर गई राजनीति
लालू के राजनीतिक पतन के पीछे चारा घोटाला सबसे बड़ा कारण रहा। 27 जनवरी 1996 को तत्कालीन बिहार (अब झारखंड) के चाइबासा कोषागार में पशुओं के चारा का करोड़ों रुपये का बड़ा घोटाले उजागर हुआ। 11 मार्च 1996 को पटना हाई कोर्ट ने इसकी जांच के लिए सीबीआइ को आदेश दिया। 1997 में लालू को सीबीआइ के समक्ष सरेंडर करना पड़ा। 1998 में सीबीआइ ने लालू और उनकी पत्नी राबड़ी देवी के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज कराया। बीते साल जनवरी में सीबीआइ की स्पेशल कोर्ट ने लालू को चारा घोटाला मामले में साढ़े तीन साल कैद व पांच लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई। इसके बाद लालू 11 सालों तक चुनाव के लिए अयोग्य हो गए हैं।
राजनीति में जिंदा रखना जरूरी, दुश्मन का दुश्मन बना दोस्त
लालू फिलहाल जेल में रहने के कारण सक्रिय राजनीति से दूर हैं। केंद्र व बिहार में सत्तासीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी उनके विरोध का कोई मौका जाने नहीं देती। एनडीए की राजनीति लालू विरोध के ही आसपास घूम रही है। विकास या कानून-व्यवस्था के दावों की तुलना के लिए लालू राज को ही सामने रखा जाता है। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे व चारा घोटाला में सजायाफ्ता लालू के लिए बिहार की राजनीति में खुद को जिंदा रखना जरूरी है। ऐसे में जिस आपातकाल की खिलाफत ने उन्हें राजनीतिक पहचान दी थी, उसके जनक कांग्रेस के साथ हैं तो आश्चर्य नहीं। कहा ही गया है कि राजनीति में स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होते और दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। लालू इस बात को बखूबी समझते हैं।