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रिश्ते में तो लालू-मुलायम समधी लगते हैं, दोनों के उत्थान-पतन की ये है कहानी, जानिए

बिहार और यूपी के दो सियासी दिग्गज रिश्ते में समधी-लालू और मुलायम। दोनों राज्यों के दो बड़े राजनीतिक घरानों की जाति नीति और नीयत भी एक सी है। जानिए इस खबर में....

By Kajal KumariEdited By: Published: Mon, 27 May 2019 10:50 AM (IST)Updated: Tue, 28 May 2019 03:52 PM (IST)
रिश्ते में तो लालू-मुलायम समधी लगते हैं, दोनों के उत्थान-पतन की ये है कहानी, जानिए
रिश्ते में तो लालू-मुलायम समधी लगते हैं, दोनों के उत्थान-पतन की ये है कहानी, जानिए

पटना [अरविंद शर्मा]। यूपी-बिहार का सियासी मिजाज और माहौल लगभग एक-सा है। दोनों राज्यों के दो बड़े राजनीतिक घरानों की जाति, नीति और नीयत भी एक सी है। मुलायम और लालू परिवार के उत्थान-पतन की दास्तान भी एक समान है। चुनाव परिणाम के बाद परिणति में भी फर्क नहीं दिखा। अब दोनों के वारिसों को सियासत में दोबारा वापसी की कोशिश भी एक साथ ही करनी होगी।

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संयोग यह भी कि दोनों का सियासी दुश्मन भी एक ही दल है। भाजपा के विकासवादी और राष्ट्रवादी राजनीति से परिवारवादी और जातिवादी दलों का मुकाबला इतना आसान नहीं होगा। 

1970 के दशक में सियासत के दोनों धुरंधरों की राजनीति जेपी आंदोलन से शुरू हुई। लोहिया की विचारधारा के सहारे दोनों आगे बढ़ते रहे। 1990 के दशक में दोनों की राजनीति एक साथ चमकी और 2019 में एक ही जैसा अंजाम भी मिला।

लोकसभा चुनाव में दोनों सियासी परिवारों के उत्तराधिकारियों ने लगभग एक तरह की गलतियां की। वोट बैंक की राजनीति में बिहार में लालू प्रसाद के पुत्र तेजस्वी यादव ने जातीय आधार पर पांच दलों का गठबंधन बनाया। जीत के सपने सजाए। परिवार-रिश्तेदार को भी प्रश्रय दिया।

पाटलिपुत्र से बहन मीसा भारती को उतारा और सारण से लालू के समधी चंद्रिका राय को। किसी को कामयाबी नहीं मिली। कांग्रेस छोड़कर सबका सूपड़ा साफ हो गया। यूपी में भी मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव ने इसी मकसद से समाजवादी पार्टी के साथ मायावती की बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन किया। चुनाव लड़ा।

परिणाम आया तो बुरी तरह पराजित हुए। बिहार में न लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती जीत सकी, न यूपी में मुलायम की बहू डिंपल यादव। जात-पात और परिवार के आधार पर राजनीति करने वालों के लिए यह बड़ा सबक हो सकता है। 

दोनों परिवारों की कभी तूती बोलती थी

देश की राजनीति में लालू-मुलायम परिवारों की कभी तूती बोलती थी। शून्य से शिखर का फासला तय किया। अपने-अपने राज्य के दबंग और दिग्गज हैं। कभी इनके बिना देश की राजनीति भी अधूरी लगती थी। कांग्र्रेस के विरोध से सफर शुरू करके दोनों ने अलग पार्टी बनाई। अपने दम पर खड़ा-बड़ा किया। लगभग एक ही समय में समाजवाद से परिवारवाद की ओर प्रस्थान किया। परिवार का पूरा ख्याल रखा।

जातीय समीकरण के जरिए सियासत को ऐसा साधा कि सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गए। मुलायम ने भाई-भतीजा, बेटा-बहू को सत्ता सुख दिया। लालू उनसे भी आगे निकल गए। राजनीति से दूर रहने वाली पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया। बेटे-बेटियों की बारी आई तो राज्यसभा और विधानसभा के दरवाजे खुलवा दिए।

पुत्र-पुत्री-पत्नी मोह में हिचके नहीं। डिगे नहीं। कद बढ़ा तो सपने भी बड़े होते गए। दोनों ने कभी प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा था। आज वर्तमान बचाने की चुनौती है। दिल्ली अब बहुत दूर हो चुकी है। 

अखिलेश-तेजस्वी की राह भी एक 

घरेलू मोर्चे पर लालू-मुलायम की तरह अखिलेश और तेजस्वी की परिणति और परेशानी भी एक तरह की दिख रही है। दोनों के घर में महाभारत के हालात हैं। तेजस्वी यादव के खिलाफ उनके बड़े भाई तेजप्रताप यादव ने ही मोर्चा खोल रखा है तो अखिलेश के खिलाफ उनके चाचा शिवपाल यादव ने।

पारिवारिक झगड़े में लालू-मुलायम की भूमिका एक तरह की है। दोनों चुप हैं। न शिवपाल के विद्रोह पर मुलायम मुंह खोल रहे हैं और न ही तेजस्वी की बढ़ रही मुश्किलों पर लालू कुछ बोल रहे हैं। 

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