अपनी ही सीट तक सिमट गए जीतनराम मांझी
जिन कंधों पर भाजपा ने भरोसा किया था वे ही कमजोर निकले। भाजपा ने विधानसभा चुनावों में एक तिहाई से ज्यादा सीटें अपने सहयोगियों को दी थीं। इस पूरी लड़ाई में जीतन राम मांझी सबसे कमजोर कड़ी साबित हुए। मांझी अपनी परंपरागत सीट मखदुमपुर को भी नहीं बचा नहीं सके।
पटना [अनिल सिंह झा]। दरअसल जिन कंधों पर भाजपा ने भरोसा किया था वे ही कमजोर निकले। भाजपा ने विधानसभा चुनावों में एक तिहाई से ज्यादा सीटें अपने सहयोगियों को दी थीं।
इस पूरी लड़ाई में जीतन राम मांझी सबसे कमजोर कड़ी साबित हुए। मांझी अपनी परंपरागत सीट मखदुमपुर को भी नहीं बचा नहीं सके, जबकि 'हम' के प्रदेश अध्यक्ष शकुनी चौधरी तारापुर से हार गए।
विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपनी सहयोगी तीन दलों को 87 सीटें दी थीं, जिसमें लोजपा को 43, रालोसपा को 23 और 'हम' को 21 सीटें मिली थीं। 'हम' को मात्र एक सीट पर ही सफलता मिल सकी।
बिहार में दलित और महादलित वोटरों में गहरी पैठ होने के आधार पर भाजपा ने तीनों सहयोगी दलों में सबसे अधिक मांझी पर भरोसा किया था। मांझी को प्रधानमंत्री की हर रैलियों में मंच पर पहली कतार में जगह मिली।
उन्हें महादलित समुदाय के मसीहा के रूप में पेश करने की जुगत भी हुई, लेकिन कोई रणनीति कामयाब नहीं हुई।
मखदुमपुर के अलावा इमामगंज से मैदान में उतारा गया। चुनाव परिणाम ने मांझी के दलित व महादलित वोटरों में अच्छी पकड़ की बात को पूरी तरह से झुठला दिया। दलित और महादलित वोटरों ने मांझी को पूरी तरह से नकार दिया।
इमामगंज से मांझी जीत गए, लेकिन अपनी परंपरागत सीट मखदुमपुर को बचा पाने में कामयाब नहीं रहे। उनके पुत्र संतोष कुमार सुमन को कुटुम्बा से हार का सामना करना पड़ा। 'हमÓ के प्रदेश अध्यक्ष शकुनी चौधरी समेत तमाम विधायक अपनी सीट बचा पाने में सफल नहीं रहे। मांझी न तो खुद की पार्टी और ना ही भाजपा को फायदा पहुंचाने में कारगर साबित हुए।