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पहचान की राजनीति से निकल अपनी अलग पहचान बनाने के प्रयास में जदयू

जदयू अब पहचान की राजनीति से निकलकर समावेशी राजनीति की रणनीति अपनाई है। पार्टी बदलते राजनीतिक हालात में अपने दर्शन और सिद्धांत पर कायम रहने का प्रयास कर रही है।

By Kajal KumariEdited By: Published: Mon, 30 Apr 2018 04:31 PM (IST)Updated: Mon, 30 Apr 2018 08:31 PM (IST)
पहचान की राजनीति से निकल अपनी अलग पहचान बनाने के प्रयास में जदयू
पहचान की राजनीति से निकल अपनी अलग पहचान बनाने के प्रयास में जदयू

पटना [एसए शाद]। पहचान की राजनीति (आइडेंटिटी पॉलिटिक्स) से निकल जदयू ने अब समावेशी राजनीति की रणनीति अपनाई है। पार्टी के कार्यक्रम इसे ही मद्देनजर रख तय हो रहे हैं। तेज ध्रुवीकरण के कारण बदले राजनीतिक हालात में अपने दर्शन और सिद्धांत पर कायम रहने का भी प्रयास है। लोगों के बीच खुद की पहचान बनाना भी जदयू की प्राथमिकता में अभी शामिल है। 

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पार्टी सूत्रों ने बताया कि जदयू को इस बात का एहसास है कि गठबंधन की राजनीति में पीडीपी एवं अकाली दल जैसी पार्टियों को भी अपनी पहचान की चिंता है। टीडीपी ने तो अलग होने का फैसला ही ले लिया। शिवसेना भी तनाव में है, भले ही उसके इन दलों से अलग कारण हों।

बिहार में जदयू के सहयोगी दल भाजपा में सुशील कुमार मोदी, नंदकिशोर यादव जैसे नेता तो हैं जो जेपी आंदोलन की उपज हैं, मगर ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है जिनके बयान सरकार को असहज करते रहते हैं। जदयू के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि ऐसी चुनौतियों से निपटने के अलावा राष्ट्रीय फलक पर अपनी राजनीति के विस्तार के उद्देश्य से भी पार्टी ने समावेशी राजनीति पर बल दिया है।

रामनवमी पर प्रदेश में हुए उपद्रव की पश्चिम बंगाल से तुलना करते हुए उन्होंने कहा कि बिहार में तो नीतीश कुमार ने अपनी प्रशासनिक कुशलता से स्थिति बिगडऩे नहीं दी। एक केंद्रीय मंत्री के बेटे को गिरफ्तार तक किया, जबकि पश्चिम बंगाल में हालात बिगड़े तो जानी नुकसान भी हुआ।

समाज में कट्टरपन नहीं फैले, इसकी काट के लिए जदयू ने समाज सुधार अभियान चला रखे हैं। पार्टी इन मुद्दों के माध्यम से समाज के हर तबके को पहले से ही 'इंगेज' रखना चाहती है। कट्टरपन से निपटना भी समावेशी राजनीति पर फोकस का बड़ा कारण है।

समाज सुधार के कार्यक्रमों में दहेज प्रथा का उन्मूलन एवं बाल विवाह पर रोक के लिए अभियान प्रमुख हैं। जेपी आंदोलन के दौरान लोकनायक ने भी ऐसा प्रयोग किया था। तब उन्होंने 'जनेऊ तोड़ो' आंदोलन चलाया था। जदयू को इस बात का भी एहसास है कि अनुसूचित जाति एवं अतिपिछड़ों की भावना उससे जुड़ी है, मगर इतिहास गवाह है कि बिहार में इन जातियों की पहचान की राजनीति बहुत सफल नहीं हुई है।

चाहे वह 1934 में बनी त्रिवेणी सभा हो, या 1947 में गठित बिहार स्टेट बैकवर्ड क्लास फेडरेशन की बात हो। ऐसे में केवल कुछ चुनिंदा समुदायों की गोलबंदी की जगह समाज के हर तबके का दिल जीतना अधिक बेहतर है। पार्टी ने अपनी राजनीति के समावेशी स्वरूप के लिए अपने सक्रिय कार्यकर्ताओं के सघन प्रशिक्षण की मुहिम भी चलाई।

उन्हें विभिन्न समुदायों के विकास से लेकर पार्टी के सिद्धांत जैसे 13 विषयों पर ट्रेनिंग दी गई है। जदयू के प्रधान राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी ने कहा कि समय के साथ चुनौतियों के स्वरूप भी बदलते हैं। उन्हें ध्यान में रख पार्टी अपनी रणनीति बनाती है।

लेकिन जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार चाहे कोई भी रणनीति बनाएं, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय इसके मूल में रहेगा। नीतीश कुमार इन चारों से कोई समझौता नहीं कर सकते। 


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