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लोकसभा चुनाव: सियासी मजबूरियों में फंसा महागठबंधन, राजग को उखाड़े तो कैसे?

बिहार में महागठबंधन खुद ही सियासी मजबूरियों में घिरा हुआ है। एेसे में उसके सामने राजग को उखाड़ फेंकने की जो चुनौती है उसे वह कैसे पूरा कर सकेगा? पढ़िए ये स्पेशल रिपोर्ट....

By Kajal KumariEdited By: Published: Fri, 05 Apr 2019 11:27 AM (IST)Updated: Fri, 05 Apr 2019 11:12 PM (IST)
लोकसभा चुनाव: सियासी मजबूरियों में फंसा महागठबंधन, राजग को उखाड़े तो कैसे?
लोकसभा चुनाव: सियासी मजबूरियों में फंसा महागठबंधन, राजग को उखाड़े तो कैसे?

पटना [अरुण अशेष]। राजग को उखाड़ फेंकने के इरादे से बना महागठबंधन अब तक खुद स्थिर नहीं हो पाया है। पहले सीट और उसके बाद उम्मीदवारों के चयन में देरी के चलते इसके घटक दलों के नेता और कार्यकर्ता विचलित हैं। नेताओं को शिकायत है कि मनमाफिक सीटें नहीं मिलीं। उधर ढेर सारी सीटों पर कार्यकर्ता रो रहे हैं कि उन्हें मन लायक उम्मीदवार नहीं मिले। जान पड़ता है कि सारी सियासत मजबूरी वाली है। सब एक-दूसरे को मजबूरी में ढो रहे हैं, आजिज अंदाज में कि कब मौका मिले और उतार फेंकें। 

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भाजपा विरोधी वोटों की गोलबंदी ही महागठबंधन का आधार है। नेताओं का आकलन है कि बहुमत आबादी केंद्र और राज्य सरकार से ऊब चुकी है। विरोध के नाम पर किसी को भी वोट देकर संसद में भेज देगी। यह बेशक नेताओं का मुगालता हो सकता है, मगर जमीनी सच्चाई ऐसी नहीं। सच यह है कि इस चुनाव में, जबकि कोई लहर नहीं है, लोग उम्मीदवार के व्यक्तित्व पर नजर रख रहे हैं।

बहुत कुछ उम्मीदवार की छवि पर भी निर्भर करेगा। बहरहाल महागठबंधन के नेताओं को इसकी फिक्र नहीं। उनकी स्थापना यही है कि राजग के विरोधी वोटर जाएंगे कहां? झक मारकर उन्हें महागठबंधन के पक्ष में ही वोट देना है!

यह सब बेवजह नहीं हो रहा है। महागठबंधन के कुछ घटक दलों के नेताओं को लग रहा है कि उनके दल का टिकट लोकसभा चुनाव में जीत का प्रमाण पत्र है। नई बनी वीआइपी के नेता मुकेश सहनी इस भ्रम के कुछ अधिक ही शिकार हैं। अपने लडऩे के लिए एक सीट खोजने में उन्हें महीने से अधिक का समय लग गया। अंतत: खगडिय़ा को उन्होंने माकूल पाया। राजद का जनाधार और अपनी जाति के अलावा अधिक धन खर्च करने की क्षमता उनकी पहचान है।

महागठबंधन की बेमन से चली चुनावी तैयारी का आलम यह है कि अब तक सभी सीटों के लिए उसके उम्मीदवार भी तय नहीं हो पाए हैं। कई सीटों के बारे में एक से अधिक उम्मीदवारों की चर्चा हो रही है। कार्यकर्ता साफ कह रहे हैं कि मोलभाव चल रहा है। अधिक भुगतान करने वाला उम्मीदवार ही टिकट का अधिकारी होगा। ऐसी चर्चा बहुत खतरनाक होती है।

सीतामढ़ी वाले डॉ. बरुण कुमार इसके ताजा शिकार हुए हैं। उनके बारे में लेनदेन की चर्चा इस कदर हुई कि राजग के घटक दलों के कार्यकर्ताओं ने टिकट हासिल करने की उपलब्धि के लिए बधाई देना भी मुनासिब नहीं समझा। नतीजा यह निकला कि डॉक्टर साहब टिकट लौटा कर घर बैठ गए।

महागठबंधन के जिन उम्मीदवारों के बारे में ऐसी चर्चा फैल गई है, उन्हें टिकट भले ही वापस न करना पड़े, फिर भी उनका चुनाव काफी खर्चीला हो जाएगा। किसी भी उम्मीदवार के बारे में यह प्रचार कि उनके पास पैसा के अलावा कुछ नहीं है, चुनाव पर अंतत: नकारात्मक प्रभाव ही डालता है। 

तेज प्रताप की चंचलता

एक पक्ष राजद का पारिवारिक विवाद भी है, हालांकि विवाद की कहानी इस भाव से सुनी जा रही है कि उसके नायक तेज प्रताप चंचल चित के स्वामी हैं और उनकी गतिविधियों की डोर अदृश्य हाथों में है। वे किसी को उम्मीदवार बना दें और राजद के लोग उनके कहने पर वोट भी देंगे, इस हद तक उनके बारे में कोई नहीं सोच पाता है।

बावजूद इसके खबर बनने की उनकी अपार क्षमता, छोटे स्तर पर ही सही, महागठबंधन की संभावनाओं को प्रभावित कर रही है। किसी अन्य दल की तुलना में राजद का मूल जनाधार अधिक ठोस है। इसके बावजूद तेज प्रताप की गतिविधियां महागठबंधन की सेहत के लिए अच्छी नहीं। 

समन्वय का घोर अभाव

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उम्मीदवार चयन से पहले संबंधित क्षेत्र के जदयू कार्यकर्ताओं से औपचारिक मुलाकात की। उम्मीदवारों का नाम लेकर उनकी राय मांगी। यहां तक कि भाजपा और लोजपा के उम्मीदवारों के बारे में भी उनकी राय ली गई। गिरिराज सिंह और अश्विनी चौबे ने नामांकन से पहले नीतीश कुमार से मुलाकात की। चयन की ऐसी प्रक्रिया महागठबंधन के दलों में नहीं अपनाई गई।

यहां तक कि किसी उम्मीदवार के नाम पर विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव की असहमति को भी नजरअंदाज कर दिया गया। राजग के घटक दलों ने सभी 40 सीटों के समीकरण को ध्यान में रखकर उम्मीदवार खड़े किए, जबकि महागठबंधन के दलों ने इस अंदाज में उम्मीदवार उतारे कि टिकट हमारे हिस्से का है, मर्जी जो चाहे करें। 

उपेक्षित रह गए कार्यकर्ता

राजग के विपरीत महागठबंधन के कार्यकर्ता उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। अच्छी बात यह कि कांग्रेस को छोड़ दें तो दूसरे घटक दलों के कार्यकर्ता एक ही वैचारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि से जुड़े हैं। मतलब एक दौर में सब के सब मंडल आंदोलन से जुड़े रहे हैं। इसके बावजूद उनके बीच आपसी संबंध नहीं बन पाया है। इसकी वजह भी है।

नेतृत्व के स्तर पर इसे मजबूत करने की कोशिश भी नहीं हो रही है। यही कारण है कि कार्यकर्ताओं के बीच घटक दलों के उम्मीदवारों के बारे में यह राय कायम नहीं हो पा रही है कि जीतने के बाद ये अपने फायदे के लिए इधर से उधर नहीं चले चले जाएंगे। दूसरी तरफ राजग के कार्यकर्ताओं के बीच सत्ता एक ऐसा सूत्र है, जो उन्हें पहले से आपस में जोड़े हुए है। 


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