जॉर्ज फर्नांडिस: दमन के गर्भ से निकला नायक, द्रोहकाल के पथिकों में सबसे जानदार नाम
जॉर्ज फर्नांडिस नहीं रहे। द्रोहकाल के कई पथिकों में सबसे जानदार नाम उनका ही था। आपातकाल के दौर में इंदिरा गांधी की नींद उड़ा देने वाले इस जझारू नेता का बिहार से गहरा नाता रहा।
पटना [मनोज झा]। यह वह दौर था, जब भारत की सियासी जमीन पर समाजवाद की संकरी गलियों में राममनोहर लोहिया मानो अकेले गैर-कांग्रेसवाद का नारा लगा रहे थे। आजादी मिले कोई दशक-डेढ़ दशक का वक्त गुजरा था और कांग्रेस के प्रति समाज के विभिन्न वर्गों की आस्था कमोबेश अभी बनी हुई थी। मोहभंग जैसा तो कुछ था भी नहीं। केंद्र के साथ-साथ ज्यादातर राज्यों में भी कांग्रेस की ही सरकारें थीं और इंदिरा गांधी की राजनीतिक जमीन लगातार मजबूत हो रही थी। विपक्ष की राजनीति का आज जैसा सुदृढ़ ताना-बाना भी नहीं था। ऐसे में लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद के नारे को सबसे पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने आवाज दी। उन्होंने न सिर्फ इस नारे की संभावना और सच्चाई को सबसे पहले पहचाना, बल्कि इसे समाज और सियासत की जमीन पर उतारने के लिए जी-जान से जुटे भी। आखिरकार लोकनायक की उत्कट संकल्प साधना सफल हुई, संपूर्ण क्रांति का प्रसव हुआ और कांग्रेस की चूलें हिल गईं।
उसके बाद देश में राजनीति का एक नया दौर आया। आपातकाल में विरोधी राजनीतिक विचारों का दमन, समाजवादी विचारधारा का सूर्योदय, कांग्रेस का सफाया, नई राजनीतिक संस्कृति और जमात की आमद जैसी कई घटनाएं-परिघटनाएं पेश आईं। साथ ही देश के सियासी पथ पर द्रोहकाल के कई पथिकों ने दमदार दस्तक भी दी। इनमें सबसे जानदार नाम जॉर्ज फर्नांडिस था।
दुनियाभर की पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियां बनी यह तस्वीर
बिखरी जुल्फें, हाथों में बेड़ी-हथकड़ी और चेहरे पर भयानक आक्रोश! आपातकाल के दौरान मुजफ्फरपुर जेल से चुनाव के लिए नामांकन करने जाते जॉर्ज की यह तस्वीर दुनियाभर की पत्र-पत्रिकाओं की सुर्खियां बनी। तब आपातकाल का तमाम नेताओं, बुद्धिजीवियों ने अपने-अपने तरीके से विरोध किया, लेकिन जॉर्ज का सुर विध्वंसक था और इसने मानो इंदिरा की नींद उड़ा दी।
आपातकाल में सत्ता के लिए विकट चुनौती बने जॉर्ज
आपातकाल के दौरान विपक्ष के तमाम नेताओं के बीच जॉर्ज सत्ता प्रतिष्ठान के लिए सबसे विकट चुनौती बनकर पेश हुए। उन्हें जेल में डाला गया, यातनाएं दी गईं, एक से बढ़कर एक गंभीर मुकदमे ठोंके गए, लेकिन इन सबके बावजूद दुबला-पतला और ढीले-कुर्ता-पायजामे में दिखने वाला क्रांति का यह नायक फौलाद बनकर सत्ता के सामने अड़ा रहा, खड़ा रहा और धज्जियां उड़ाता रहा। दूसरे शब्दों में, लोहिया गैर-कांग्रेसवाद की विचारधारा के प्रवर्तक थे तो जेपी ने इसे सरजमीन पर उतारा, जबकि जॉर्ज ने उसे सियासत का अमली जामा पहनाया।
कांग्रेस विरोध की राजनीति के लिए समझौते भी किए
आखिरकार कांग्रेस विरोध की उनकी राजनीति इतनी चरम पर जा पहुंची कि उन्होंने विचारधारा के स्तर पर भी समझौते किए और सर्वथा विपरीत माने जाने वाले दक्षिणपंथ को भी गले लगाने से गुरेज नहीं किया। इस दृष्टि से भारतीय जनता पार्टी को जॉर्ज का शुक्रगुजार होना चाहिए कि भारतीय राजनीति में उसकी अश्पृश्यता को तोडऩे की पहल इसी प्रखर समाजवादी नेता ने की थी। भाजपा आज गाहे-बगाहे जिस कांग्रेस मुक्त भारत की बात करती है, जॉर्ज उसके उद्घोषक कहे जा सकते हैं। उन्होंने कांग्रेस की राजनीतिक संस्कृति को देश और समाज के लिए सर्वथा अनुपयुक्त करार दिया और अंतिम दम तक इस नजरिये पर अडिग रहे।
लंबे व संघर्षपूर्ण राजनीतिक सफर में बिहार का खास स्थान
जॉर्ज के लंबे और संघर्षपूर्ण राजनीतिक सफर में बिहार का एक खास स्थान दिखाई देता है। कर्नाटक के मंगलोर में एक कैथोलिक ईसाई परिवार में जन्मे जॉर्ज ने सियासत में कदम रखने से पहले श्रम संगठनों और मिल मजदूरों के हितों की लंबी-लंबी लड़ाइयां लड़ीं। 1967 में वह पहली बार मुंबई से लोकसभा के लिए चुने गए। इसके बाद विभिन्न आंदोलनों के रास्ते वह अनायास ही बिहार की क्रांति भूमि की ओर आ खिंचे। यहां की जमीन, यहां के लोग, यहां का मिजाज, यहां के तेवर, यहां की राजनीतिक चेतना मानो सब कुछ जॉर्ज के मुफीद थी। उन्होंने यहां मुजफ्फरपुर, बांका और नालंदा लोकसभा सीटों से कई चुनाव लड़े और ज्यादातर में जीत हासिल की।
बिहार की माटी ने दी बेपनाह मुहब्बत, यहां से आठ बार बने सांसद
बिहार के सामाजिक और जातीय परिवेश में जॉर्ज फर्नांडीस जैसा नाम एक बार अटपटा जरूर लग सकता है, लेकिन यहां की माटी और यहां के लोगों ने उन्हें बेपनाह मुहब्बत दी। वे यहां से आठ बार संसद पहुंचे। मतलब कि बिहार को यह पता भी नहीं चला कि एक कन्नड़ मुंबई से सियासत करते हुए कब यहां आया और हमारा होकर रह गया। यह कहा जा सकता है कि अपने अंदर की सियासी ज्वाला को दहकने और उसमें प्रतिगामी शक्तियों को जलाकर राख करने के लिए जॉर्ज को बिहार सबसे उपयुक्त जमीन प्रतीत हुई।
10 साल से गुम-सी हो गई थी क्रांति व द्रोह की यह आवाज
आज करीब 10 साल से जॉर्ज खामोशी और गुमनामी की जिंदगी जी रहे थे। क्रांति और द्रोह की आवाज कहीं गुम-सी हो गई थी। उनके उठाए तमाम सवाल आज भी अनुत्तरित दिखते हैं। ऐसे में जॉर्ज के चाहने वालों को आज उनके महाप्रयाण पर यही संकल्प लेना चाहिए कि गरीब-मजलूमों, किसान-मजदूरों या समाज के अंतिम पायदान तक खड़े इंसान को जब तक हंसा न दिया जाए, क्रांति के इस नायक को कोई भी श्रद्धांजलि शायद अधूरी रहेगी।
जॉर्ज को अभिभावक मानने वाले नीति-नियंता की भूमिका में
सुकून की बात इतनी है कि सियासत में जॉर्ज को बड़ा भाई, अभिभावक या मार्गदर्शक मानने वालों की एक पूरी जमात आज बिहार समेत विभिन्न स्थानों पर नीति-नियंता की भूमिका में हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह सियासी जमात जॉर्ज की गर्जना और चेतना से हमेशा अनुप्राणित होते रहेंगे।
(लेखक बिहार के स्थानीय संपादक हैं।)