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यहां 163 सालों से मनुष्यों की तरह मछलियों का हो रहा अंतिम-संस्कार, जानें कहानी

बिहार की राजधानी के पास एक स्थान एेसा भी है जहां हिंदू रीति-रिवाजों के साथ मछलियों का अंतिम संस्कार किया जाता है। साथ ही यहां प्राण त्यागने वाले अन्य जानवरों का खास तवज्जो दी जाती है।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Sun, 09 Jun 2019 09:30 AM (IST)Updated: Sun, 09 Jun 2019 09:30 AM (IST)
यहां 163 सालों से मनुष्यों की तरह मछलियों का हो रहा अंतिम-संस्कार, जानें कहानी
यहां 163 सालों से मनुष्यों की तरह मछलियों का हो रहा अंतिम-संस्कार, जानें कहानी

कौशलेंद्र कुमार, पटना। मृत्यु के बाद मनुष्यों के अंतिम-संस्कार के विषय में तो सभी जानते हैं। कभी मछलियों के बारे में ऐसा सुना है? जी हां, बिहार की राजधानी का एक स्थान (तरेत पाली स्थान) ऐसा भी है जहां मछलियों की मृत्यु होने पर पूरे हिंदू रीति रिवाज और वैदिक कर्मकांड के अनुसार उनका अंतिम-संस्कार किया जाता है। यही नहीं उस 'स्थान' पर देह त्याग करने वाले सभी जीवों का भी इसी तरह क्रिया- कर्म किया जाता है। हाथी, घोड़ा, बैल, गाय, कुत्ता, सियार, बिल्ली, नील गाय सहित कोई भी जीव इस 'स्थान' पर अगर दम तोड़ता है तो वैदिक रीति से उसी ढंग से उसका दाह-संस्कार किया जाता है जिस रीति से हिंदू धर्म में मरने वाले व्यक्ति का किया जाता है।

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जो व्यक्ति इस कार्य को संपन्न करता है वह हिन्दू धर्म के मुताबिक क्षौर क्रिया यानि बाल मुंडन, दाढ़ी, नाखून आदि कटवाने के बाद स्नान के  पश्चात जीव की अंतिम क्रिया कर्म को संपादित करता है। मृत्यु के बाद जीव के आकार के मुताबिक उसे कफन पहनाया जाता है। फिर फूल-माला से सजाकर वैदिक-मंत्रोच्चार के बाद उसे दफनाया जाता है। मछलियों को फलदार वृक्ष की जड़ के पास दफनाया जाता है। इसके पीछे वैज्ञानिक तर्क है। एक तो उस जीव की अंतिम क्रिया हो गयी और दूसरा उस वृक्ष को भी खाद के रूप में जरूरी पोषक तत्व मिल जाते हैं। इससे वृक्ष अधिक फल देने में सक्षम होता है।

163 वर्षों से जीवित है परंपरा

वैदिक और वैज्ञानिक दोनों सोच पर आधारित यह परंपरा पटना से सटे 21 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नौबतपुर प्रखंड के तरेत-पाली 'स्थान' में पिछले 163 वर्षों से जीवित है। 1855 में इस 'स्थान' की नींव स्वामी राजेन्द्राचार्य ने रखी थी। उसके बाद स्वामी बासुदेवाचार्य, स्वामी धरनीधराचार्य और वर्तमान में स्वामी सुदर्शनाचार्य इसके संरक्षक और कर्ता -धर्ता हैं। लगभग 37 एकड़ में फैले तरेत पाली 'स्थान' में राम, सीता, लक्ष्मण और बजरंगबली की सुंदर प्रतिमा से सुसज्जित एक 145 फीट ऊंचा मंदिर है। दूरदराज से लोग यहां दर्शन को आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दर पर जो कोई भी अपनी मुराद लेकर आया उसकी मन्नत जरूर पूरी होती है। यही वजह है कि सालों भर यहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।

मुफ्त है खाना और रहना

यहां आनेवालों के लिए रहना और खाना मुफ्त है। इस परिसर में 15 फीट गहरा, 90 फीट चौड़ा और 70 फीट लंबा एक तालाब है। इसमें हजारों की संख्या में कई किस्म की मछलियां हैं। कई मछलियां तो आकार और वजन में ऐसी हैं जिन्हें मरने के बाद अकेला आदमी नहीं उठा पाता। कभी-कभी बीमारियां तो कभी आयु पूरी होने पर तालाब में मछलियां मर जाती हैं। उनसब का इसी तरह अंतिम-संस्कार किया जाता है। इसके अलावा यहां फिलहाल सांड, भैंसा, गाय, बैल, घोड़ा, नीलगाय सहित 53 पशु रह रहे हैं।

इसके अलावा यहां दो दर्जन के लगभग कुत्ते भी हैं। कोई भी बेसहारा पशु यहां चला आता है तो दोबारा यहां से नहीं जाता। यहीं का होकर रह जाता है। इस बाबत स्वामी सुदर्शनाचार्य जी महाराज ने कहा कि ङ्क्षहदू सनातन धर्म है। सभी जीवों की मृत्यु के बाद अंतिम क्रिया का प्रावधान है। लिहाजा यहां रहने वाले सभी जीवों का उसकी मृत्यु के बाद दाह-संस्कार किया जाता है। मछली तो भगवान विष्णु का अवतार है।

भगवान की जूठन से भरता है पेट

मछलियों को खाने के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं की जाती है। मंदिर में स्थापित भगवान की मूर्ति को भोग लगाने के लिए जो प्रसाद बनता है, भोग लगने के बाद उस बर्तन को उसी तालाब में साफ किया जाता है। बर्तन में लगे अन्न से ही मछलियों का पेट भरता है। साथ ही श्रद्धालुओं द्वारा दिया गया आहार भी काम आता है।

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