खून भरी रेत पर लिख डाली हरित क्रांति की नई इबारत, किसानों की मेहनत व हिम्मत ने बदली तकदीर
कभी अपराधग्रस्त रहे बिहार के रोहतास जिला स्थित काव नदी के तटीय इलाके अब हरियाली बिखेर रहे हैं। किसानों की मेहनत और हिम्मत ने इलाके की रंगत ही बदल दी है।
रोहतास [प्रमोद टैगोर]। यह खून भरी रेत पर हरित क्रांति का एक नया अध्याय है। बिहार के रोहतास जिले में काव नदी का तटीय इलाका कभी अपराधियों की शरणस्थली था। डेढ़ दशक पहले तक वहां दिन में भी बंदूकें गरजती थीं। अब किसानों की मेहनत और हिम्मत ने इलाके की रंगत ही बदल दी है। बंजर पड़ी छह हजार एकड़ से अधिक जमीन पर फसलें लहलहा रही हैं।
अपराधियों की सरपरस्त बनी आबादी अब खेती-किसानी में मशगूल है। किसानों के घर धन-धान्य से भर गए तो बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। निजी-सरकारी नौकरियों में भी कई युवा अच्छे ओहदेदार बन गए हैं। लोग परदेस से लौटकर बंजर पड़ी भूमि पर खेतीबाड़ी शुरू कर विकास की नई इबारत लिख रहे हैं।
हरियाली से भरे काव नदी के तटीय इलाके
रोहतास के संझौली, काराकाट, नासरीगंज, राजपुर, सूर्यपुरा और दावथ प्रखंडों को छूते काव नदी के तटीय इलाके में आज हरियाली ही हरियाली नजर आती है। किसानों ने बंजर पड़ी करीब पांच हजार एकड़ जमीन को उपजाऊ बना दिया। इटढ़ियां, बेनसागर, चरपुरवा, छुलकार, बाजितपुर, बुकनाव, चैता बाल, रामोडीह, चवरियां, करूप, मंझरिया समेत दावथ और राजपुर प्रखंडों के करीब तीन दर्जन गांवों के लोग बंजर पड़ी भूमि पर रबी, खरीफ और नकदी फसल के रूप में सब्जियों की खेती कर रहे हैं।
फसलों के साथ-साथ लगाए गए बाग
इस क्षेत्र में फसलों के साथ कई जगहों पर अमरूद और आम के बागीचे भी लगाए गए हैं, जिसका फल बेचकर आर्थिक मजबूती तो मिल ही रही, पर्यावरण भी संरक्षित हो रहा है। अब तो कृषि विभाग भी जमीन को उपजाऊ बनाने और उन्नत बीज देने में सहायक बन रहा है।
अपनी मिट्टी पर बिता रहे बेहतर जीवन
परदेस से लौटे बली सिंह, संजय सिंह, कामता पासवान व अजरुन चौधरी बताते हैं कि आज वे अपनी मिट्टी पर बेहतर जीवन बिता रहे हैं। परदेस में 10-15 हजार रुपये की जिल्लतभरी नौकरी करने से यहां की खेतीबारी बहुत अच्छी है। अब खेतों में बिजली के खंभे भी लगने लगे हैं, जिससे खेती में और सहूलियत हो जाएगी।
मन में नहीं रहा गन का डर
एक दशक पहले मंझरिया में पुलिस उपाधीक्षक अखिलेश्वर प्रसाद और सुकहरा में मेजर केपी शर्मा की हत्या से नदी का तटीय इलाका खौफनाक हो गया था। इलाके से अधिकांश युवक पलायन कर गए थे, लेकिन युवाओं की सकारात्मक सोच से एकजुटता आई। उनके तेवर बदले। मेहनत का रोलर चला तो सब कुछ बदल गया। अब तो बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। बेटियां भी साइकिल से पढ़ाई करने गांव के नजदीक कस्बों तक जाने लगी हैं।
अब युवा नहीं रह जाते हैं कुंवारे
इस तटीय क्षेत्र के गांवों में लोग बेटियों की शादी करने से कतराते थे। इसके कई कारण थे, मसलन बंजर जमीन और यहां के लोगों का बेतरतीब जीवन स्तर, शराब का सेवन, शिक्षा व सड़क का अभाव ..। आज धीरे-धीरे सारी समस्याएं समाप्त हो रही हैं। अब युवा कुंवारे नहीं रह जाते हैं।
गांव मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री सड़क योजना से जुड़ गए हैं। सभी गांवों में प्राथमिक विद्यालय स्थापित हो गए हैं। आतंक का माहौल समाप्त हो गया है। इसी वर्ष मंझरिया के जयकिशन ने संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सर्विसेज की परीक्षा उत्तीर्ण कर क्षेत्र को एक अलग पहचान दी है।
इतिहास के झरोखे से इलाका
350 वर्ष पूर्व काव नदी धान के कटोरे के लिए शोक के रूप में जानी जाती थी। दूर तक कोई गांव नहीं था, चारों तरफ पानी ही पानी था। 1762 के सर्वे के मुताबिक तटीय क्षेत्र में मात्र छह गांव थे। इटाढ़ी, कुलरी, मझारी, परसूनगर, अमरीय और बेनसारि। 1911 के सर्वे में दर्जनों छोटे-छोटे गांव बस गए। रेतीली जमीन ही किसानों के नाम हुई। फिर लोगों ने हाड़तोड़ मेहनत करके झाड़-झंखाड़ को साफ कर उसे उपजाऊ बनाया। नतीजतन, आज इस क्षेत्र में फसलें लहलहा रही हैं।