बिहार संवादी: नए दौर में टूट रहे जाति के बंधन, साहित्य में दिखती इसकी झलक
पटना में आयोजित 'बिहार संवादी' के पहले दिन के छठे सत्र में 'जाति के जंजाल में साहित्य' विषय पर चर्चा हुई। इसमें बताया गया कि आज के नए दौर में जाति के बंधन टूट रहे हैं।
पटना [राज्य ब्यूरो]। विषय कठिन है। दैनिक जागरण के साहित्य उत्सव 'बिहार संवादी' के पहले दिन शनिवार को 'जाति के जंजाल में साहित्य' विषय पर चर्चा हुई। चर्चा चले इसके पहले परिचय के दौर में यह बात उठ गई कि मंच पर जो प्रमुख वक्ता हैं, उनके नाम से जातिसूचक शब्द ही गायब हैं। क्या इसे ऐसे माना जाए कि साहित्यकारों ने जातिसूचक शब्दों से परहेज करना शुरू कर दिया है।
बिहार संवादी के छठे सत्र में चर्चा जाति के जंजाल में फंसे साहित्य को लेकर हुई। अनिल विभाकर ने माना कि जाति सूचक शब्दों को हटाने की परपंरा बिहार में जगन्नाथ मिश्रा सरकार के समय शुरू हुई। उन्होंने अपने नाम से मिश्रा शब्द हटा लिया। बाद में उन्होंने फिर इसे अपने नाम के साथ जोड़ लिया।
अनिल विभाकर से अलग रमेश ऋतम्भर ने कहा कि गांव दलितों की कब्रगाह हैं। इसलिए वे शहर आ गए और उन्होंने जातिसूचक शब्दों से परहेज किया। यही वजह है कि शहरों की छोटी बस्तियों में एक साथ कई धर्म सम्प्रदाय और जाति के लोग बगैर किसी विद्वेष के साथ रह रहे हैं। रमेश वकालत करते हैं कि जाति के अंदर जो जाति है, हमें अब उससे भी बाहर निकलना होगा।
युवा साहित्यकार अरुण नारायण ने माना कि गांधी, नेहरू, अंबेडकर से लेकर पेरियार तक ने अपने दौर में जाति का समाधान ढूंढने की कोशिश की, लेकिन साहित्यकार की दृष्टि इस ओर नहीं गई। अरुण कहते हैं कि मंडल कमीशन के दौर में जो साहित्य सृजन हुआ, उसमें मंडल की गलत छवि दिखाने की कोशिश की गई। मंडल का जो सकारात्मक पक्ष था साहित्यकारों ने उसकी अनदेखी की। रमेश ऋतम्भर कहते हैं कि जाति एक सच्चाई है जिसे युवा पीढ़ी तोड़ेगी।
बहरहाल, बात आगे बढ़ी कि विमर्श के साहित्य ने रचनात्मकता को कहीं बाधित तो नहीं किया है? अरुण नारायण इस बात से इन्कार करते हैं। उनका मानना है कि विमर्श के साहित्य ने हिन्दी की पारंपरिक जड़ता को तोड़कर उसकी दुनिया को एक व्यापक क्षितिज प्रदान किया है। वे अश्विनी पंकज की माटी, माटी अरकाटी, भगवान दास मोरवाल के उपन्यास काला पहाड़, रामधारी सिंह दिवाकर के उपन्यास आग पानी और आकाश का हवाला देकर कहते हैं कि इन साहित्यों ने विमर्श की रचनात्मकता का वैज्ञानिक विस्तार दिया है।
रमेश ऋतम्भर कहते हैं कि विमर्श के साहित्य ने जाति को तोड़ा है। स्त्री को देखने के नजरिये को बदला है। हमारे बीच की जो समस्याएं हैं, हम उन पर विमर्श नहीं करेंगे तो वे समस्याएं दूर नहीं होगी। विमर्श करेंगे, तभी नए साहित्य की रचना होगी और समाज की दृष्टि उस ओर जाएगी।
रमेश ऋतम्भर, अरुण नारायण और अनिल विभाकर से लेकर मंच संचालन कर रहे अनंत विजय तक मानते हैं कि युवा पीढ़ी ही एक नया समाज बनाएगी जो जाति और सम्प्रदाय मुक्त होगा। बेटी रोटी का संबंध तो रहेगा, लेकिन जाति कहीं गौण हो जाएगी। नए दौर में जाति के जो बंधन हैं, वे टूट रहे हैं और साहित्य में भी इसकी झलक सहज ही देखी जा सकती है।