आयोग की सख्ती और शक्ति से ही लग सकती है नेताओं की जुबान पर लगाम
चुनावी मौसम में नेताओं की फिसलती जुबान पर आयोग से लेकर अदालत तक संज्ञान ले रही है।
श्रवण कुमार, पटना। चुनावी मौसम में नेताओं की फिसलती जुबान पर आयोग से लेकर अदालत तक संज्ञान ले रही है। नेताओं की बदजुबानी मतदाताओं के बीच भी ज्वलंत मुद्दा बनी है। नेताओं की जुबान पर लगाम लगाने के लिए निर्वाचन आयोग को सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है। अपनी शक्ति पहचानने की जरूरत है। ये बातें बिहार इलेक्शन वॉच के संयोजक राजीव कुमार ने कहीं। कुमार दैनिक जागरण के आयोजन 'जागरण विमर्श' में अपनी राय व्यक्त कर रहे थे। विमर्श 'चुनाव में नेताओं की बदजुबानी' विषय पर था।
उन्होंने कहा कि आज एक चलन सा बन गया है। सस्ती लोकप्रियता के लिए कुछ छोटे-मोटे नेता भी उल्टे-सीधे बयान दे देते हैं। बयान के बाद वे मीडिया के लिए फोकस प्वाइंट हो जाते हैं। अक्सर ये वैसे नेता ही होते हैं जो आम तौर पर जन सरोकारों से दूर होते हैं। न तो उनका कोई ठोस आधार होता है, न ही व्यापक नजरिया। सिर्फ अपने बयान के आधार पर सुर्खियों में रहना चाहते हैं। कुमार ने कहा कि इन नेताओं के साथ ही कुछ वैसे नेताओं की जुबान भी फिसल जाती है, जो अपनी राष्ट्रीय पहचान रखते हैं। यह उन दलों के लिए एक बड़ी चुनौती है, जो लोकतंत्र के हिमायती हैं। पार्टी तंत्र को ठीक किए बगैर बदजुबानी से निजात मिलना संभव नहीं है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक दलों की बड़ी भूमिका जनमत तैयार करने में होती है। ऐसे में पार्टियां अगर अपने नेताओं की जुबान पर नियंत्रण नहीं करेंगी, बदजुबानी पर लगाम आसान नहीं।
कुमार ने कहा कि नेताओं की जुबान पर लगाम लगाने में सबसे बड़ी भूमिका निर्वाचन आयोग की है। कुछ घंटों का प्रतिबंध नहीं, कठोर कदम उठाने होंगे। आज भी लोग जिस टीएन शेषण और जेएम लिंगदोह को चुनाव सुधार के लिए याद करते हैं, उनसे आयोग को सीख लेने की आवश्यकता है। उस शक्ति को पहचानना होगा, जिससे आयोग की छवि को स्वायत्त जाना और माना जाता है। 'लगता है आयोग जाग गया' जैसी अदालती टिप्पणी निर्वाचन आयोग के लिए आइना है। आज आयोग उदाहरण नहीं बना पा रहा है।
राजनीतिक दलों और नेताओं के प्रति बढ़ रहा अविश्वास
विमर्श के क्रम में कुमार ने चुनाव के दौरान जमकर हो रहे खर्चे की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि प्रत्याशी तो धनबल का सहारा लेते ही हैं, अभी जो ट्रेंड चला है आयोग भी मतदाताओं को जागरूक करने के नाम पर पैसे लुटा रहा है। यह देखना होगा कि भारी-भरकम खर्चे के बाद भी मतदाता कितने जागरूक हो रहे हैं। अगर इस पर गौर करेंगे, तो यही पाएंगे कि परिणाम बेहतर नहीं हैं। मतदाताओं का रूझान मतदान से हट रहा है। उन्होंने कहा कि दरअसल राजनीतिक दलों और नेताओं के प्रति विश्वसनीयता तेजी से खंडित हो रही है। सोचना होगा कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उदासीन मतदाता आखिर स्थानीय निकाय और पंचायतों के चुनाव में 80 से 85 प्रतिशत तक मतदान कैसे करते हैं।
चुनाव आयोग को बरकरार रखनी होगी अपनी छवि
कुमार ने कहा कि आयोग को भी अपनी निष्पक्ष छवि बरकरार रखनी होगी। एक आंकड़े का जिक्र करते हुए कहा कि छोटी-मोटी त्रुटियों के कारण आयोग ने 2014 में चुनाव लड़े लगभग 100 उम्मीदवारों को प्रत्याशी बनने से अयोग्य बता दिया है, जबकि कई गंभीर आपराधिक रिकॉर्ड वाले मजे से चुनाव लड़ते हैं।