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पटना में दैनिक जागरण कृषि महासमागम: बहुत फलीभूत होगा संवाद का यह बीज

पटना में रविवार को दौनिक जागरण के कृषि महासमागम का आयोजन किया गया। इसके पहले बिहार में 380 जगह कृषि चौपाल लगाए गए।

By Amit AlokEdited By: Published: Sun, 16 Dec 2018 11:06 AM (IST)Updated: Sun, 16 Dec 2018 08:05 PM (IST)
पटना में दैनिक जागरण कृषि महासमागम: बहुत फलीभूत होगा संवाद का यह बीज
पटना में दैनिक जागरण कृषि महासमागम: बहुत फलीभूत होगा संवाद का यह बीज

पटना [भारतीय बसंत कुमार]। बिहार की किसानी को लेकर बड़े सरोकार की चर्चा के साथ जिस संपादकीय महाअभियान का आगाज एक दिसंबर से हुआ, उसके पहले चरण का विराम रविवार को कृषि महासमागम के साथ हो गया। लेकिन यह विराम वास्तव में आरंभ है, इस आश्वस्ति के साथ कि संपूर्ण बिहार में किसानों के बीच जाकर संवाद के जिस बीज का रोपण 'दैनिक जागरण' ने किया है, वह बहुत फलीभूत होगा और उसकी खुशबू से किसानों का घर-आंगन महक उठेगा। विदा हो रहे साल के अनुभवों के खाद-पानी से निश्चय ही नए साल में किसानों की उम्मीदों की नई फसल खुशियों का खलिहान भर देगी।

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पिछले 75 साल में 'दैनिक जागरण' ने अनेक मुकाम हासिल किए हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति गहरी आस्था के साथ लोक चिंता हमारा ध्येय है। 'जो उपजाए अन्न वह क्यों न हो संपन्न' संपादकीय महाअभियान के तहत सभी 38 जिलों में कृषकों की समस्याओं का अध्ययन और स्थानीय स्तर पर उसके निराकरण की पहल जागरण के सरोकार की कड़ी है।

इसके तहत ही 380 जगहों पर किसानों के बीच जाकर चौपाल लगाई गई। काफी संख्या में विषय विशेषज्ञ और अनुभवी किसानों के साथ कृषकों का संवाद कराया गया। तीस हजार किलोमीटर का सफर कृषि जागरूकता रथ ने किया। करीब दो करोड़ लोगों के साथ किसी न किसी रूप में इस महाअभियान से जुड़ा संवाद कायम हुआ। कोशिश यह हुई कि नवाचारी कृषि को बढ़ावा दिया जाए। 'दैनिक जागरण' ने काफी संख्या में उन किसानों की कहानी प्रकाशित की जो अनेक झंझावातों के बाद भी प्राणपण से किसानी में जुटे हैं और सफलता के नित नए आयाम रच रहे हैं।

देश के किसान इस समय सचमुच चिंतित हैं। खेत छोड़ दिल्ली की सड़क पर आ जाने की बेबसी से जग परिचित है। कृषि की हिस्सेदारी सकल घरेलू उत्पाद में भले ही 15 फीसद हो, हम विश्व की पांचवी सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था की ओर अगर अग्रसर हैं तो जड़ में कहीं न कहीं किसानों का भी खून-पसीना शामिल है। भारतीय राजनीति की पुरबा-पछुआ हवा से सरकार बदल सकती है। पैदावार पर बहुत फर्क कहां पड़ता है?

ऐसा लगता है कि समर्थन मूल्य का अधूरापन अनाज के बाजार में घुन की तरह है। पूरापन ही मूल्य की पौष्टिकता को बनाए रख सकता है। रास्ता ए-टू-एफएल में है या कांप्रिहेंसिव कॉस्ट यानी सी-टू में यह निर्णय तो नीति नियंताओं को करना है। दूध और फल-सब्जी का उत्पादन बढऩे की रफ्तार अनाज से चार गुना ज्यादा क्यों है? 25 साल में तीन लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या के सवाल हमारे सामने हैं।

2007 में राष्ट्रीय कृषि नीति की रिपोर्ट में किसानों को आर्थिक संबल देने का लक्ष्य रखा गया। ऐसा नहीं है कि सरकारों ने कदम नहीं उठाए या चिंता नहीं की। बस, सरजमी पर वह अभी होना बाकी है, जैसा सरकार या इस देश के नीति नियंता सोचते हैं। इसका हल तो निकालना ही होगा कि इंपोर्ट ड्यटी लगाने-बढ़ाने के बावजूद आयातित अनाज समर्थन मूल्य लागू कर भी अपने अनाज से सस्ता क्यों हो जा रहा है?

आइए, इस महासमागम की मेड़ पर चलकर अपने चौर, अपने टाल, अपने दीयर, चंवर-या बलुहट को आबाद बनाने की सार्थक कोशिश करें।


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