सूरमा बने संन्यासी: अंग्रेजी हुकूमत को संन्यासियों ने दी थी पहली चुनौती, बिहार और बंगाल से उठी चिंगारी
Sanyasi Vidroh against British Rule भारत में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहला विद्रोह वस्तुत संन्यासियों ने किया था। बिहार और झारखंड की इस विद्रोह में सबसे अहम भूमिका रही। पटना के मगध महिला कालेज की पूर्व प्राचार्य डा. जयश्री मिश्रा बता रही हैं पूरी कहानी...
पटना, डा. जयश्री मिश्र। आज अगर हम स्वाधीन भारत में सांस ले रहे हैं तो इसके पीछे कई लोगों और समूहों का संघर्ष रहा है। हमारे देश में ऋषियों और संन्यासियों ने भी देश काल परिस्थिति के अनुसार आगे बढ़कर जनता के हितों के लिए कई काम किए। अंग्रेजों और उनसे पहले के विदेशी आक्रांताओं के खिलाफ संन्यासियों ने भी लोहा लिया। उन्होंने न केवल राष्ट्रधर्म की स्थापना की बल्कि युगधर्म की हुंकार बनकर भी सामने आए। भारत में अंग्रेजों के आगमन से लगभग हजार वर्ष पूर्व से ही संन्यासी परंपरा चली आ रही थी। समाज में संन्यासियों की अलग पहचान थी। दसनामी संन्यासी नारंगी रंग के वस्त्र अथवा चोगा धारण करते थे और रुद्राक्ष की माला पहनते थे। उनके पास कमंडल, दंड और त्रिशूल अथवा लोहे का चिमटा और गेरुआ रंग की पताका भी रहती थी, जिसे ‘भैरो प्रकाश’ और ‘सूर्य प्रकाश’ नाम से जाना जाता था। वे अलग-अलग अखाड़ों में रहते थे।
बड़े समूहों में रहते थे सन्यासी
हरिद्वार, वाराणसी, नासिक, जूनागढ़ (सौराष्ट्र), प्रयागराज, अयोध्या, मथुरा, वृंदावन जैसी जगहों पर अधिकांश वक्त बिताने वाले इन संन्यासियों को पूरे देश में भ्रमण की छूट थी। वे जल मार्ग और जंगल के मार्ग से भी अपनी यात्राएं पूरी कर लेते थे। तीर्थस्थलों पर वे बराबर जाते थे। वे बड़े समूहों में रहते थे। राजाओं और जमींदारों की ओर से अनुदानस्वरूप उन्हें ‘संन्यासियोत्तर’ (वह जमीन, जो संन्यासियों के नाम की गई हो) अथवा ‘शिवोत्तर’ (धार्मिक भूखंड, जो शैव नागाओं के नाम की गई हो) भी मिले हुए थे।
शस्त्र भी रखते थे नागा सन्यासी
नागा संन्यासी शस्त्र भी रखते थे, जिसके लिए उन्हें शासन की ओर से कभी मनाही नहीं थी। उनकी इस तरह की सुविधा और स्वेच्छापूर्वक देश में भ्रमण अथवा धनसंग्रह पर मुगलकाल में भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया था। अखाड़ों की प्रतिष्ठा इस बात पर निर्भर करती थी कि किनके पास कितने शस्त्र हैं और किनके साथ कितनी अधिक संख्या में संन्यासी हैं। अखाड़ों का एक प्रमुख काम अपने लोगों को शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण देना भी था।
सबसे लंबे काल तक चला विद्रोह
1757 ई. के प्लासी युद्ध में अंग्रेजों को मिली जीत से उनका भारत में अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाना आसान हो गया। इसके बाद शीघ्र ही 1764 ई. में बक्सर का युद्ध हुआ, जिसमें बंगाल के नवाब मीर कासिम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुगल सम्राट शाह आलम की संयुक्त सेना का मुकाबला अंग्रेजों से हुआ। इस युद्ध का परिणाम अंग्रेजों के पक्ष में गया। अब अंग्रेज बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के वास्तविक शासक बन गए। बंगाल का नवाब अंग्रेजों पर आश्रित था और मुगल बादशाह उनका पेंशनर बन गया। अब भारत के उत्तर-पूर्वी भूभाग पर अंग्रेजों का शोषणपूर्ण शासन प्रारंभ हुआ। इसी शोषण और कुचक्रपूर्ण शासन के विरुद्ध संन्यासियों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया, जिसे संन्यासी विद्रोह की संज्ञा दी जाती है।
मुख्य रूप से बंगाल और बिहार में ही हुआ संन्यासी विद्रोह
संन्यासी विद्रोह मुख्य रूप से बंगाल और बिहार की धरती पर ही हुआ, क्योंकि यहीं अंग्रेजों ने सबसे पहले पांव जमाए थे। अंग्रेजों के विरुद्ध सबसे पहला विद्रोह वस्तुत: संन्यासियों ने ही किया, क्योंकि अंग्रेजी शासन प्रारंभ होते ही उनका विरोध प्रकट करना शुरू हो गया। संभवत: यह विद्रोह स्वतंत्रता संग्राम के दरम्यान सबसे लंबे काल तक चलने वाला विद्रोह था, जो लगभग 30 वर्ष(1770-1800 ई.) तक चला।
अकाल से कांपा बंगाल
जमींदारों और कृषकों का दमन अंग्रेज शुरू कर चुके थे और संन्यासियों की सुविधाओं पर तरह-तरह की पाबंदियां लगा रहे थे। अंग्रेजों को अपना खजाना शीघ्र भरने की चिंता थी। बंगाल और बिहार की जनता अंग्रेजों के शोषण से तबाह हो रही थी। लोग खेती छोड़कर पलायन करने लगे। ऐसे ही समय में बंगाल में भीषण अकाल (वर्ष 1770) पड़ गया। हजारों लोग भुखमरी के शिकार होकर काल कवलित हो गए। वर्षा न होने से तालाब तथा नदी-नाले सूख गए। अंग्रेजों के शोषण से बंगाल इतना खोखला हो गया था कि वह छह महीने का सूखा सह न सका। इतिहास गवाह है कि बंगाल की आबादी का एक तिहाई भाग भूख और बीमारी से नष्ट हो गया। हुगली नदी की धार में प्रतिदिन लाशें बहकर समुद्र में जाती थीं। कहा तो यहां तक गया है कि जीवित लोग मुर्दों को खाकर अपना पेट भर रहे थे।
उठ खड़े हुए संन्यासी
बिहार में इसी स्थिति से आगे निपटने के लिए गोलघर का निर्माण (1784-86) कराना पड़ा। अंग्रेजों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए बिहार और बंगाल के संन्यासी उठ खड़े हुए। उन्होंने अंग्रेजों के खजाने लूटने शुरू किए, उनकी कोठियों पर चढ़ाई की। अंग्रेजों और संन्यासियों के बीच खूनी संघर्ष के अनेक दृष्टांत इतिहास के पन्नों में भरे पड़े हैं। संन्यासियों ने जनता को भी अंग्रेजों के विरुद्ध प्रेरित किया- ‘तुम तो घी-दूध खाकर बड़े हुए हो। सांप के शरीर पर भी पैर रख देने पर वह फन काढ़ लेता है। तुम लोगों का धैर्य क्या किसी तरह भी नष्ट नहीं होता?’
तमाम कोशिशें रहीं बेकार
वारेन हेस्टिंग्स जब बंगाल का गवर्नर जनरल बना, तब तक वह संन्यासियों की गतिविधियों से तिलमिला चुका था। वह समझता था कि इनका शस्त्र धारण करना बंगाल की कानून व्यवस्था के लिए खतरा है। सो, उसने संन्यासियों के शस्त्र धारण पर प्रतिबंध लगा दिया। यह संन्यासियों को कभी कबूल नहीं था। आखिर यह उनके अस्तित्व की रक्षा के लिए परम आवश्यक हिस्सा था। अंग्रेजों ने बिहार और बंगाल के सभी बड़े जमींदारों को आदेश दिया कि वे संन्यासियों के भ्रमण पर रोक लगाएं। फिर भी संन्यासी जल या जंगल के रास्ते अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच ही जाते।
हेस्टिंग्स ने की थी कर लगाने की घोषणा
हेस्टिंग्स ने संन्यासियों की कर-मुक्त भू-संपदा पर भी कर लगाने की घोषणा कर दी। इस पर संन्यासियों का प्रतिरोध स्वाभाविक था। संन्यासियों का अंग्रेजों के साथ संघर्ष का पहला उदाहरण सारण जिले का है, जो 1767 में घटित हुआ था। अंग्रेज उनकी गतिविधियों को रोकने में विफल रहे और कइयों को जान गंवानी पड़ी थी। संन्यासियों की गतिविधि की सूचना देने पर इनाम घोषित था। चारों तरफ गुप्तचरों के जाल बिछाए गए, पर अंग्रेज उन्हें रोक नहीं पा रहे थे।
अंग्रेजों को खानी पड़ी मुंह की
वर्ष 1776 में संन्यासी विद्रोह का एक प्रमुख केंद्र पटना के अंचलों के आस-पास भी था, जहां विद्रोहियों की एक बड़ी सेना गठित की गई थी। इस सेना ने पटना स्थित ईस्ट इंडिया कंपनी की कोठियों पर हमला कर अंग्रेज के वफादार जमींदारों को लूट लिया और कंपनी सरकार का कर वसूलना मुश्किल कर दिया। सारण जिला में 5,000 विद्रोहियों की संगठित सेना ने आक्रमण कर कंपनी के दो टुकड़ियों से भयंकर युद्ध किया, जिसमें अंग्रेजी सेना को मुंह की खानी पड़ी थी। 1770-71 में पूर्णिया में भी इस तरह के हमले हुए, जिसमें 500 विद्रोही पकड़े गए थे। विद्रोही संन्यासी आम जनता को कष्ट नहीं देते थे, बल्कि उनकी मदद करते थे।
गांव के लोग करते थे इनकी मदद
गांव के लोग भी उनकी सुरक्षा और भोजन का इंतजाम करते थे। इससे तंग आकर गवर्नर जनरल हेस्टिंग्स ने 1773 ई. में घोषणा की थी कि- ‘जिस गांव के किसान विद्रोहियों के बारे में शासकों को खबर देने से इन्कार करेंगे, उन्हें गुलामों की तरह बेच दिया जाएगा।’ इस घोषणा के उपरांत झूठा आरोप लगाकर ग्रामीणों को फांसी भी दी गई ताकि विद्रोही या उनके मददगार डर जाएं। अठारहवीं सदी का अंत आते-आते यह विद्रोह मंद पड़ गया, क्योंकि तत्कालीन राजाओं ने अंग्रेजों के दबाव में आकर किसी तरह की सहायता से मना कर दिया।
षड्यंत्र से मंद हुई चिंगारी
संन्यासी विद्रोह ऐसे समय में हुआ था, जब अंग्रेज अपनी प्रारंभिक दशा में थे। अंग्रेजों को उसी समय खदेड़ भगाना संभव हो सकता था, परंतु अंग्रेज अपनी चतुराई और षड्यंत्र के सहारे मजबूत होते चले गए। अंतत: परिणाम तो सामने आया, पर संन्यासी विद्रोह के साथ इतिहासकारों ने समुचित न्याय नहीं किया। जो भी हो, संन्यासी विद्रोह का गहरा असर जनमानस पर अवश्य पड़ा था। यही कारण है कि घटना के लगभग 100 साल बाद बंकिमचंद्र चटर्जी ने संन्यासी विद्रोह पर आधारित ‘आनंदमठ’ नामक उपन्यास की रचना की, जो कालजयी साबित हुई।
(लेखिका पटना के मगध महिला कालेज की पूर्व प्राचार्या हैं)