बिहार संवादी में छा गए बॉलीवुड एक्टर पंकज त्रिपाठी, लोग बोले: यार... हीरो ऐसा भी होता है...
दैनिक जागरण के साहित्य उत्सव 'बिहार संवादी' में शिरकत करने पहुंचे बॉलीवुड के बिहारी पंकज त्रिपाठी बस छा गए। लोगों ने सहज भाव से कहा कि हीरो ऐसा भी होता है।
पटना [कुमार रजत]। हल्की पीली शर्ट पहने, बढ़ी हुई काली-सफेद दाढ़ी में जब वे हॉल में घुसे तो जमकर तालियां बजीं। और उससे भी तेज ताली तब बजी, जब वे सिर पर बिहारी स्टाइल में लहराकर गमछा बांधते दिखे। ये पंकज त्रिपाठी थे। बॉलीवुड में एक्टरों की भीड़ में अलग दिखने वाले। अलग कुछ करने वाले। यही उनकी ताकत है।
वे मंच पर 'ऊपर' होकर भी 'नीचे' बैठे लोगों को पहचानते दिखे। भइया कहकर हाथ जोड़ते व छोटों का नाम लेकर हौसला बढ़ाते दिखे। बॉलीवुड में लगभग दो दशक काट लेने और नेशनल अवार्ड पाने के बाद भी यह कहते दिखे कि उनके लिए परिवार पहले हैं और कॅरियर बाद में।
रविवार की रात आठ बजे संवादी के आखिरी सत्र में पंकज त्रिपाठी ऐसे थे, जैसे कोई अपने घर में होता है। एकदम बेलौस। औपचारिकता एक छटांक भी नहीं। वह बातचीत के क्रम में अचानक से ही फोन उठाते हैं और कहते हैं, 'बउआ तुम निकल जाओ, हमको देर होगा।' फोन रखकर कहते हैं, 'बेकार में परेशान होता इसलिए फोन उठा लिए। ऐसे भी बिहारी हैं, इतनी छूट तो लेइये सकते हैं।' लोगों की हंसी और ताली एक साथ हॉल में सुनाई पड़ती है।
बिहारी पहचान को ताकत की तरह इस्तेमाल किया
विनोद अनुपम सवाल करते हैं, एक बिहारी की बॉलीवुड में स्वीकार्यता कितनी मुश्किल है? पंकज कहते हैं, बहुत मुश्किल। कई अभिनेता संघर्ष के दौर में अपनी बिहारी पहचान छिपाते हैं, क्योंकि बॉलीवुड वाले बिहारियों में सिर्फ चौकीदार, गोलगप्पे वाला और भाजी वाला ही देखते हैं। मैंने कभी पहचान नहीं छिपाई बल्कि इसे ही अपनी ताकत की तरह इस्तेमाल किया। मैं कास्टिंग डायरेक्टर के कमरे में बाद में दाखिल होता, उससे पहले बिहार दाखिल हो जाता।
14 साल का वनवास कैसे झेला, मैं जानता हूं
गोपालगंज के गांव से पटना, दिल्ली और फिर मुंबई के सफर में मुश्किलों पर बात करते हुए पंकज कहते हैं, बॉलीवुड में पहचान बनाना मुश्किल तो है। भीड़ बहुत है। मैं 2001 में पटना से निकला और 2014 में पहचान मिली। 14 साल का ये वनवास मैंने कैसे काटा है, मैं ही जानता हूं। पत्नी ठीक कमाती थी इसलिए काम चल गया। अभिनेताओं को ऐसी ही पत्नी ढूंढऩी चाहिए। (हॉल में फिर तालियां गूंजती हैं।)
बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, आपको बार-बार नकारा जाएगा। दुत्कारा जाएगा। मुझे याद है, मैं एक दिन में 10-10 जगह काम के लिए भटकता था। एक लड़की डायरेक्टर के कमरे का दरवाजा खोलती थी। हम 15-20 लोग उसकी तरफ ताकते थे। वह एक-एक को अंगुली से इशारा करती- नॉट फिट, नॉट फिट, नॉट फिट... और किसी को अंदर बुला लेती। ये रोज होता। शुक्र था कि घर जाता तो पत्नी दरवाजा खोलती और कहती- 'फिट।'
बस, प्लस प्वाइंट था कि मेरे पास खोने को कुछ नहीं था। अभाव ने मेरे लिए हथियार का काम किया। स्ट्रगल कभी स्ट्रगल लगा ही नहीं। कुछ नहीं भी हुआ तो 500 रुपया मजदूरी करके तो कमा ही लूंगा।
कैमरे का लुक शॉट चेहरे का नहीं, आत्मा का होता है
विनोद अनुपम कहते हैं, हॉल में पटना के कई रंगकर्मी बैठे हैं, उन्हें बताएं कि वे बॉलीवुड के लिए कैसे तैयारी करें। पंकज कहते हैं, रंगमंच और सिनेमा के बीच बहुत महीन धागा है। पहले तो कैमरे की हिचक दूर करनी होती है, इसमें डेली शोप (टीवी धारावाहिक) बहुत काम आते हैं। एक्टर को अपने क्राफ्ट पर काम करने की जरूरत है। सिनेमा में ज्यादा देने की जरूरत नहीं। बस आपको ईमानदारी से अपने सीन में रहना है। मैं हमेशा कहता हूं कैमरे का लुक शॉट चेहरे का नहीं, आत्मा का होता है। बॉलीवुड इकलौती इंडस्ट्री है, जहां पैरवी भी नहीं चलती।
जिम जाओ न जाओ, किताबें जरूर पढ़ो
विनोद अनुपम पूछते हैं, फिल्मों में काम दिलाने में एनएसडी कितनी मददगार है? पंकज कहते हैं, पैशन और हॉबी होना जरूरी है, मगर सिर्फ पैशन और हॉबी होने से ही कोई इंजीनियर पुल नहीं बना सकता। यही बात एक्टर पर भी लागू होती है। अभिनेता के लिए पढऩा सबसे जरूरी है। अभिनेता की बॉडी बिल्डिंग भले न हो, विचार जरूर होने चाहिए। जिम जाओ न जाओ, किताबें जरूर पढ़ो। धार नहीं हो तो कलाकार खत्म हो जाता है।
कला का काम सिर्फ मनोरंजन नहीं
सिनेमा में बिहारी आज भी क्यों अंडरलाइन किए जाते हैं? इस सवाल पर पंकज कहते हैं, इसका कारण है कि बिहारी कम रहे बॉलीवुड में। अब तो बहुत लोग पहचान बना रहे हैं, मगर आज से कुछ साल पहले यहां के मां-बाप के लिए बच्चों का कॅरियर ऑप्शन सिर्फ इंजीनियर-डॉक्टर ही था। मुझे भी लगता था कि समाज को अभिनेता की क्या जरूरत? डॉक्टर तो फिर भी किसी की जान बचाता है। फिर लगा- 'अभिनेता भले ही एक बीमार व्यक्ति को नहीं बचा सकता, मगर एक बीमार समाज को जरूर बचा सकता है। कला का काम सिर्फ मनोरंजन नहीं है। सिस्टम की आलोचना करना भी है। संदेश देना भी है, इसमें थोड़ा मनोरंजन भी होना चाहिए ताकि लोग आपकी बात सुन सके।'
फिल्मसिटी की जगह आदर्श गांव में करें शूटिंग
बिहार में सिनेमा की हालत पर पंकज त्रिपाठी ने दो टूक कहा कि फिल्मसिटी की बात अकसर की जाती है, मगर ये दिवास्वप्न जैसा ही है। फिल्मसिटी बन भी गई तो उसे मेंटेन करना आसान नहीं। महाराष्ट्र सरकार मुश्किल से कर पाती है, जबकि वहां इतनी फिल्में बनती हैं।
इससे अच्छा है कि यहां एक दर्जन गांवों को आदर्श ग्राम की तरह विकसित किया जाए। वहां शूटिंग की जाए। इससे लोगों को रोजगार भी मिलेगा और कुछ पैसे भी उस गांव को विकास के लिए मिलेंगे। यहां अब तक फिल्म पॉलिसी तक नहीं बन पाई है। बिना राज्य सरकार के सहयोग के बिहार में सिनेमा नहीं फल-फूल सकता।
यार, हीरो ऐसा भी होता है
पंकज त्रिपाठी बातचीत के क्रम में ये बताना भी नहीं भूलते कि इस साल अब तक उन्हें कोई भी अच्छा किरदार नहीं मिला है, जैसा 2017 में 'न्यूटन', 'निल बटे सन्नाटा' या 'गुडग़ांव' में मिला था। वे कहते हैं, आज भी भूमिकाएं ही मुझे चुन रहीं हैं। चुटकी लेते हुए कहते हैं, 'आज तक पत्नी के सिवा कुछ नहीं चुना।'
अब पंकज त्रिपाठी से बातचीत का सेशन खत्म हो चुका है और इसके साथ ही संवादी का समापन भी। हॉल में बैठे लोग पंकज के साथ बाहर निकलते हैं। पंकज को ट्रेन पकडऩी है, हड़बड़ी में हैं, मगर फिर भी तस्वीरें ले रहे लोगों को न नहीं कह पा रहे। गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर बैठे-बैठे भी अपनों को टोक रहे हैं। फोन नंबर दे रहे हैं। अनजाने चेहरे सेल्फी ले रहे हैं। पंकज हाथ हिलाते हुए गाड़ी से निकल जाते हैं। पीछे भीड़ से आवाज आती है- यार, हीरो ऐसा भी होता है।'