बिहार में अपने ही हथियार से घायल होती रही मुस्लिम सियासत, भाजपा को हराने में कर लिया खुद का नुकसान
बिहार में भाजपा को हराने के चक्कर में मुस्लिम सियासत खुद का ही नुकसान कर बैठती है। इस बार राजग की ओर से जदयू ने 11 मुस्लिमों को टिकट दिया था मगर इस बिरादरी के मतदाताओं ने एक पर भी भरोसा नहीं किया।
अरविंद शर्मा, पटना। बिहार में मुस्लिम सियासत की दास्तान अजीब है। भाजपा को हराने के चक्कर में खुद का ही नुकसान कर बैठती है। इस बार राजग की ओर से जदयू ने 11 मुस्लिमों को टिकट दिया था, मगर इस बिरादरी के मतदाताओं ने एक पर भी भरोसा नहीं किया। सारे मुस्लिम प्रत्याशी हार गए। हालात ऐसे हो गए कि सत्ता पक्ष के पास मंत्री बनाने के लिए अभी एक भी मुस्लिम विधायक नहीं है। सरकार दूसरे सदन से भरपाई करने की तैयारी में है, जहां सीधे निर्वाचन से कोई नहीं जाता।
ऐसे घटती जा रही भागीदारी
वर्ष : मुस्लिम विधायकों की संख्या
2000 : 29
2005 : 16
2010 : 19
2015 : 24
2020 : 19
मुस्लिम बिरादरी को दोस्तों से भी दगा
ऐसा भी नहीं कि बिहार के मुस्लिम मतदाता करीब तीन दशकों से जिस दल या गठबंधन पर भरोसा करते आए हैैं, उसकी रहमत उनपर बरसती ही आई है। मुस्लिम बिरादरी को दोस्तों से भी दगा ही मिलते आ रहा है। बिहार में मुस्लिम मतदाता सबसे ज्यादा राजद पर भरोसा करते हैैं। राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने मुस्लिम और यादव को मिलाकर माय समीकरण बनाया और प्रचारित भी किया। इसका सियासी फायदा भी उठाया, मगर मुस्लिमों को क्या मिलता रहा?
यादवों की तुलना में मुस्लिमों की आबादी तीन फीसद ज्यादा
माय समीकरण की हवा बनाकर फायदा उठाने वाला राजद ने इस बार के चुनाव में 14 फीसद आबादी वाली यादव बिरादरी को 58 टिकट दे दिए, जबकि 17 फीसद आबादी वाले मुस्लिमों को सिर्फ 18 टिकट ही दिए गए। यादवों की तुलना में मुस्लिमों की आबादी तीन फीसद ज्यादा, मगर टिकट एक तिहाई से भी कम। जाहिर है, दूसरे की राह में रोड़े अटकाने के चक्कर में मुस्लिम मतदाता अपनी राह में ही खाई खोद लेते हैैं।
न क्षेत्र, न दल और न अपना नफा-नुकसान
मुस्लिम मतदाताओं का मकसद सिर्फ भाजपा को हराना होता है। दल कोई भी हो, उसकी नीतियां चाहे जैसी भी हों। जिसने भी खुद को भाजपा का प्रतिद्वंद्वी साबित कर दिया, वह मुस्लिम वोट का हकदार हो जाता है। कई बार तो भाजपा प्रत्याशी के मुकाबले खड़े मजबूत निर्दलीय को भी वोट देने से मुस्लिम गुरेज नहीं करते हैैं। कुछ नहीं देखना है, न क्षेत्र, न दल और न अपना नफा-नुकसान। उन्हें सिर्फ भाजपा की हार से मतलब होता है। एक क्षेत्र में अगर कांग्रेस या राजद के समर्थन में खड़े होते हैैं दूसरे क्षेत्र में किसी और के पक्ष में। मौलाना मजहरूल हक विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति अली अरशद का कहना है कि नकारात्मक सोच ने मुस्लिमों का नुकसान किया है। इसी सोच ने बिहार में ओवैसी को पांव पसारने में मदद की है। अगर अब भी नहीं संभले तो भागीदारी और गिर सकती है। अच्छे प्रत्याशी को ही वोट करना चाहिए। चाहे बिरादरी कोई भी हो।
कभी 34 विधायक जीतकर आए थे
सयुंक्त बिहार के इसी सदन में 1985 में 34 मुस्लिम विधायक जीतकर आए थे। मुस्लिम पैरोकारों के लिए गौर करने वाली बात है कि 1985 के पहले तक भाजपा का बिहार में हस्तक्षेप आज की तरह नहीं था तो मुस्लिम मतदाता खुले मन से अपना प्रतिनिधि चुनते थे। अब मतदान करने के मकसद में तब्दीली आ गई तो उल्टा असर होना लाजिमी है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि 17वीं विधानसभा में इस बिरादरी के सिर्फ 19 विधायक ही रह गए हैैं। इसमें भी पांच विधायक असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम के हैैं। अगर ओवैसी को इतनी बड़ी कामयाबी नहीं मिलती तो यह संख्या और नीचे गिर सकती थी। ओवैसी ने बिहार में पहली बार में ही पांच सीटें जीत ली हैैं। जाहिर है, बिहार में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व गिरने के पीछे की वजह उनके वोट करने के मकसद में तब्दीली है।