Bihar Eleciton 2020: बिहार की चुनावी राजनीति पर बड़ा आरोप है जातिवाद, इसे भी बेअसर करते रहे हैं बड़े बदलाव के मुददे
Bihar Eleciton 2020 2020 के चुनाव के लिए जदयू ने सात निश्चय की दूसरी सूची जारी कर दी है। भाजपा केंद्र और राज्य सरकार की उपलब्धियां गिना तेज विकास का वादा कर रही है। राजद बेरोजगारी का मुददा उठा रही है। बेशक इन्हीं मुददों पर मतदाता अपना निर्णय देंगे।
पटना, अरुण अशेष । Bihar Assembly Eleciton 2020: बिहार की चुनावी राजनीति (Electoral Politics of Bihar) पर एक बड़ा आरोप लगता है कि जातिवाद (Casteism ) सबसे बड़ा मुद्दा (Big issue ) है। यह आंशिक सच है। जातियां चुनावों को प्रभावित करती हैं। लेकिन, चुनाव जीतने का यह अंतिम उपाय नहीं है। बीते 30 वर्षों में, चुनाव के दिनों में जातिवाद की सबसे अधिक चर्चा होती है, परिणाम बताते हैं कि अक्सर जातिवाद पर मुददे भारी रहे हैं। बेशक कुछ जातियों का बड़ा हिस्सा खास-खास राजनीतिक दलों से जुड़ा हुआ है। फिर भी उनकी तादाद अधिक है, जो जाति के बदले मुददों पर मतदान करते हैं।
तब आरक्षण पर हुए थे गोलबंद
खासकर 1990 और उसके बाद के चुनावों में जातिवाद का बड़ा हल्ला होता रहा है। मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद बड़ी आबादी आरक्षण के सवाल पर गोलबंद हुई। यह किसी जाति की गोलबंदी नहीं कही जा सकती है। सूत्र रूप में इसे सामाजिक न्याय का नाम दिया गया। प्रारंभ के दिनों में आरक्षण का विरोध हुआ। विरोध ने समाज के उस हिस्से को एक गोल में बिठा किया, जिन्हें सरकारी सेवाओं में आरक्षण का लाभ मिल रहा था। आरक्षण सामाजिक परिवर्तन का बड़ा मुददा था। उसमें व्यापक जनता अपनी भलाई देख रही थी। ये लोग उस राजनीतिक धारा के पक्ष में खड़े हुए, जो आरक्षण के हिमायती थे। स्वाभाविक रूप से यह समूह आरक्षण विरोधियों का विरोध भी करने लगा।
जनता की गोलबंदी का रहा ये असर
जनता की गोलबंदी का असर देखिए कि आज की तारीख में कोई भी राजनीतिक पार्टी आरक्षण का विरोध नहीं कर रही है। इसके उलट सभी दल यह बताने में लगे हुए हैं कि आरक्षण का उससे अधिक हिमायती कोई और नहीं है। केंद्र सरकार ने तो सवर्ण गरीबों को भी आरक्षण का लाभ दे दिया है। यह काम उस भाजपा ने किया है, जिस पर हमेशा आरोप लगा कि वह मंडल आयोग की सिफारिशों को दबाने के लिए ही राम मंदिर का मुददा उठा रही है। यहां आकर भाजपा पर आरक्षण विरोधी होने का आरोप भी खत्म हो गया। यह अलग बात है कि मंडलवादी पार्टियां यह आरोप लगाने से अब भी पीछे नहीं हट रही हैं कि भाजपा आरक्षण को समाप्त कर देगी।
कांग्रेस विरोध था 1990 के चुनाव का मुददा
1989 का लोकसभा और 1990 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के विरोध में था। उन चुनावों में कांग्रेस केंद्र और बिहार की सत्ता से बेदखल हो गई। 1995 में लालू प्रसाद को आरक्षण समर्थकों की गोलबंदी का लाभ मिला। उसी चुनाव के बाद कहा गया कि लालू प्रसाद के पक्ष में तमाम पिछड़े, दलित और मुसलमान गोलबंद हो गए। लालू की पार्टी जनता दल को 28 प्रतिशत वोट मिले। सहयोगी भाकपा को 4. 8, झामुमो को 2.3, माकपा को 1.4 प्रतिशत वोट मिले। शरद यादव और रामविलास पासवान जनता दल में ही थे। अब सुधिजन खुद हिसाब जोड़ लें। अगर लालू प्रसाद को सभी पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों का वोट मिला तो जनता दल को एक चौथाई से कुछ अधिक वोट क्यों मिला। उस समय भी उनकी शानदार जीत में जातिवाद से अधिक विरोध के वोटों का बिखराव था।
विकासहीनता और अपराध
2000 के विधानसभा चुनाव में विकासहीनता और अपराध बड़ा मुददा था। परिणाम पर असर भी हुआ। आरक्षण और कथित जातिवाद का सहारा लेने के बावजूद लालू प्रसाद 1995 के परिणाम को नहीं दोहरा पाए। हालांकि उनके कुल वोटों में .3 प्रतिशत की मामूली वृद्धि हुई। सीटों की संख्या 167 से घटकर 124 रह गई। भाजपा, समता पार्टी और जनता दल के बीच गठबंधन हुआ था। उसने विरोधी वोटों के बिखराव को रोका। इस गठबंधन को 122 सीटें मिली। नीतीश कुमार सात दिन के लिए मुख्यमंत्री बने। अगर सिर्फ जातिवाद के आधार पर चुनाव होता तो लालू प्रसाद की सीटें कम नहीं होती। नीतीश कुमार सात दिनों के लिए ही सही मुख्यमंत्री नहीं बन पाते।
विकास और सुशासन
2005 का विधानसभा चुनाव तो पूरी तरह विकास और सुशासन के मुददे पर ही लड़ा गया। लोग अपराध से ऊब गए थे। विकास की भूख जग रही थी। फरवरी के चुनाव में राजद की जीत 75 सीटों पर हुई। उसके वोट में तीन प्रतिशत की कमी आई। उधर जदयू और भाजपा की क्रमश: 55 और 37 सीटों पर जीत हुई। सामाजिक न्याय की धारा से अलग हुई एक और पार्टी लोजपा के 29 उम्मीदवार चुनाव जीत गए। फरवरी का चुनाव किसी की सरकार नहीं बना सका। दोबारा अक्टूबर में चुनाव हुआ तो सुशासन और विकास का मुददा कथित जातिवाद पर बहुत भारी पड़ गया। एनडीए की सरकार बन गई। फरवरी के मुकाबले राजद के वोट में दो प्रतिशत की और गिरावट आई। उसकी सीटें भी 75 से घटकर 54 पर आ गई।
पांच साल की उपलब्धियां
2010 के चुनाव में एनडीए सरकार के पास पांच साल के विकास और सुशासन की उपलब्धियां थीं। जदयू को 115 और भाजपा को 102 सीटें मिली। 32 सीटों के नुकसान के साथ राजद 22 पर सिमट गया। ये सीटें उसे विधानसभा में आधिकारिक मुख्य विपक्ष का दर्जा नहीं दिला सकीं। क्या कहेंगे? राजद के लिए समर्पित घोषित कर दिए गए मुसलमानों और यादवों के वोट के बगैर एनडीए को इतनी बड़ी कामयाबी मिली। यह तो एनडीए के लोग भी नहीं कह सकते। 2015 का चुनाव भी मुददा पर ही लड़ा गया। उसमें विकास पुरुष कहे जा रहे नीतीश कुमार और वंचित आबादी को जुबान देने वाले लालू प्रसाद एक साथ थे। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाना उस चुनाव का सबसे बड़ा मुददा था।
फिर विकास और रोजगार
2020 के चुनाव में भी जातिवाद के ऊपर मुददे को रखा जा रहा है। जदयू ने सात निश्चय की दूसरी सूची जारी कर दी है। भाजपा केंद्र और राज्य सरकार की उपलब्धियां गिना रही है। तेज विकास का वादा कर रही है। मुख्य विपक्षी दल राजद बेरोजगारी का मुददा उठा रही है। बेशक इन्हीं मुददों पर मतदाता अपना निर्णय देंगे। सभी दलों के मुददे ऐसे हैं, जिनसे पूरे समाज के लाभ को ध्यान में रखा गया है।
इन्हें किस खाते में रखेंगे
यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं है कि विधानसभा चुनावों में औसत 20 प्रतिशत वोट निर्दलीय एवं अन्य छोटे दलों के खाते में चले जाते हैं। अगर सब लोग जाति के आधार पर भी वोट देते हैं तो इस वोट की गणना किस खाते में की जाएगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि जातियां चुनाव को प्रभावित करती हैं। लेकिन, मुददे अगर बड़े और सबके फायदे के लिए हों तो वे जाति के आधार पर होने वाली गोलबंदी को बेअसर भी कर देते हैं। अक्सर ऐसा ही होता है।