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खुले मैदान से प्रेक्षागृह का सफर, 58 साल से रंगमंच को सींच रहा बिहार आर्ट थियेटर Patna News

राजधानी में रंगमंच की दुनिया को आबाद करने में बिहार आर्ट थियेटर की अहम भूमिका रही। पढ़ें बिहार आर्ट थियेटर के 58वें स्थापना दिवस पर ये विशेष रिपोर्ट।

By Edited By: Published: Tue, 25 Jun 2019 01:24 AM (IST)Updated: Tue, 25 Jun 2019 09:30 AM (IST)
खुले मैदान से प्रेक्षागृह का सफर, 58 साल से रंगमंच को सींच रहा बिहार आर्ट थियेटर Patna News
खुले मैदान से प्रेक्षागृह का सफर, 58 साल से रंगमंच को सींच रहा बिहार आर्ट थियेटर Patna News

प्रभात रंजन, पटना। पटना में शायद कोई ऐसा सप्ताह गुजरे जब शहर में नाटकों की कोई प्रस्तुति न हो। शहर के रंगमंच को जिंदा रखना और अधिक से अधिक नाटकों का मंचन कराने का श्रेय देखा जाए तो कालिदास रंगालय को ही जाता है। राजधानी में रंगमंच की दुनिया को आबाद करने में बिहार आर्ट थियेटर की अहम भूमिका रही। खुले आसमान से लेकर शकुंतला प्रेक्षागृह तक के सफर में थियेटर को कई उतार-चढ़ाव देखने पड़े, पर शहर के रंगकर्म को यहां हमेशा जिंदा रखा गया। पढ़ें बिहार आर्ट थियेटर के 58वें स्थापना दिवस पर ये विशेष रिपोर्ट।


रंगमंच की इस मजबूती को और मजबूत करने में बिहार आर्ट थियेटर का योगदान रहा है। शहर के वरिष्ठ रंगकर्मी गुप्तेश्वर कुमार की मानें पटना में रंगमंच 1934 में सक्रिय हो चुका था। यंग मेंस ड्रामेटिक एसोसिएशन, पाटलिपुत्र कला मंदिर, महिला कला मंदिर, नील कमल कला मंदिर, मगध कलाकार, नव कला निकेतन आदि संस्थाएं रंगमंच को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा करने में लगी रहीं। नाट्य-आंदोलनों को गति देने में कलाकारों की अहम भूमिका रही। नाट्य आंदोलन के अंतर्गत युवा शक्तियों को रचनात्मक दिशा देने की मंशा लेकर वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल कुमार मुखर्जी बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना में जुटे।


डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पंडित नेहरू, पंडित विनोदानंद झा के संरक्षण में रवींद्र शताब्दी वर्ष 1961 में बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना हुई। 25 जून 1961 को वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में इस संस्था ने अपनी यात्रा आरंभ की। थियेटर की स्थापना में स्वर्गीय अनिल कुमार मुखर्जी के साथ आरएस चोपड़ा, आरपी वर्मा तरूण, प्रो. समीर सेन गुप्ता, अजीत गांगुली, डॉ. चतुर्भुज, परेश सिन्हा, प्यारे मोहन सहाय, सतीश आनंद, राधेश्याम तिवारी, रमेश राजहंस जैसे सैकड़ों समर्पित कलाकारों ने अपना योगदान दिया।

राजनीति और साहित्य से जुड़े लोगों का भी रहा योगदान
वृद्ध रंगकर्मी अमियनाथ चटर्जी बताते हैं कि यूनेस्को के फ्रांस स्थित मुख्यालय में साल 1961 में रंगमंच दिवस मनाने की बात सामने आयी। ठीक उसी दिन रंगकर्मियों की जमात को इकट्ठा कर बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना की गई, जो बाद में अंतर्राष्ट्रीय नाट्य संस्थान यूनेस्को के जागृत केंद्र के रूप में स्थापित हो गया। बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना के दौरान कलाकारों के साथ राजनीति और साहित्य से जुड़े लोगों ने अपना योगदान दिया। इसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री केदार पांडेय, चंद्रशेखर सिंह, नरसिंह बैठा, हथुआ की महारानी दुर्गेश्वरी शाही, बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे, साहित्यकारों में फणिश्वर नाथ रेणु, बाबा नागार्जुन, डॉ. शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव, फिल्म निर्देशक गिरीश रंजन, नोट्रेडम स्कूल की पूर्व प्राचार्य एवं हॉलीवुड अभिनेत्री मेरी पीटर क्लोवर जैसे लोगों का जुड़ाव रहा।




खुले मैदान से प्रेक्षागृह तक का सफर
बिहार आर्ट थियेटर को शीर्ष तक लाने में स्वर्गीय अनिल कुमार मुखर्जी का अहम योगदान रहा। कुमार बताते हैं कि 1950 के दशक तक बिहार में नाट्य गतिविधियां आजादी की लड़ाई एवं मनोरंजन के आसपास घूमा करती थीं। मराठी एवं बंगला रंगमंच जहां अपनी लोक संस्कृति से जुड़े थे, वहीं बिहार में छिटपुट ऐतिहासिक और धार्मिक संदर्भ के नाटक जमींदारों के संरक्षण में हुआ करते थे। अनिल मुखर्जी के प्रयास से 1972 में कालिदास रंगालय सांस्कृतिक कॉम्पलेक्स के लिए एक महत्वपूर्ण भूखंड बिहार आर्ट थियेटर को सरकार ने उपलब्ध कराया। प्रेक्षागृह नहीं होने के कारण रंगकर्मी खुले आकाश के नीचे बांस और बल्ले के सहारे तंबू लगाकर नाटकों का मंचन करते थे। आंधी-पानी, जाड़ा-गर्मी और बरसात में कलाकारों को काफी परेशानी से गुजरना पड़ता था। बाद में रंगकर्मियों को प्रेक्षागृह भी मयस्सर हो गया।


सप्ताह में पांच दिन होते थे नाटक
वरिष्ठ रंगकर्मी प्रदीप गांगुली बताते हैं कि अनिल कुमार मुखर्जी शहरवासियों में नाटक के प्रति बढ़ती रुचि और कालिदास रंगालय का नाम होते देखना चाहते थे। इसके लिए कलाकार सप्ताह में पांच दिन नाटकों की प्रस्तुति करने लगे। वर्ष भर में 300 दिन नाटक किए जाने का सिलसिला लगातार तीन वर्षो तक चलता रहा।


प्रशिक्षण की हो रही थी व्यवस्था
रंगमंच को गंभीर रंगकर्मी मिलें, इसके लिए अनिल कुमार मुखर्जी ने अपने आवास पुनाईचक में बिहार नाट्यकला प्रशिक्षणालय की स्थापना साल 1970 में की। अरूण कुमार सिन्हा ने बताया कि उन दिनों ¨हदी रंगमंच और अंग्रेजी रंगमंच के कलाकारों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता था। हॉलीवुड की सिने तारिका रहीं नोटेड्रम स्कूल की प्राचार्य मेरी पीटर क्लोवर जैसे रंगकर्मी द्वारा कलाकारों को प्रशिक्षण दिया जाता था। 80 के दशक में नाटकों का स्वर्णिम काल रहा। इसमें बिहार आर्ट थियेटर के कलाकारों ने दूसरे प्रांतों में जाकर नाटकों का मंचन किया। इसमें नाटक 'पालकी' के लगभग 60, 'कारखाना' के 46, 'बिन दुल्हन की शादी' एवं 'हम जीना चाहते हैं' के लगभग 150, 'काबुलीवाला' और 'मिनी' के 50 से ज्यादा शो किए गए। नाटक के अधिक से अधिक मंचन का सिलसिला अभी जारी है।

थोड़ा है थोड़े की जरूरत

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रंगकर्मी विजेंद्र टांक की मानें तो बिहार आर्ट थियेटर का समृद्ध इतिहास रहा है। समय के साथ रंगमंच को भी आधुनिक बनाया जा रहा है। एक रंगकर्मी को बेहतर मंच कम पैसे में मिल जाए, इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। वैसे भी और जगहों की अपेक्षा यहां का रेट काफी कम है। रंगकर्मी मनीष महिवाल ने कहा कि प्रेमचंद रंगशाला, रवींद्र भवन, श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल आदि जगहों पर नाटकों का मंचन होता रहा है, लेकिन यहां पर हॉल की कीमत ज्यादा है। ऐसे में रंगकर्मियों के लिए कालिदास रंगालय से बेहतर जगह कोई नहीं।  बिहार आर्ट थियेटर के प्रदीप गांगुली ने कहा कि थोड़ी बहुत असुविधा प्रेक्षागृह में कलाकारों को नाटक के मंचन करने के दौरान होती है। उसे जुलाई तक दूर कर दिया जाएगा। साउंड और लाइट सिस्टम को बदला जाएगा, ताकि दर्शकों और कलाकारों को लाभ मिल सके।

रंगालय को आधुनिक बनाने के दावे पर संशय
कालिदास रंगालय को आधुनिक थियेटर बनाने को लेकर अभी संशय बना है। थियेटर के पूर्व कार्यकारी सचिव कुमार अनुपम ने रंगालय को आधुनिक करने की बात कही थी। इसके लिए योजना बनाई गई थी। आधुनिक रंगशाला बनाने को लेकर कुमार अनुपम ने कहा कि इसे लेकर काम चल रहा है। जो प्रोजेक्ट है उसमें कॉर्मिशयल नहीं होगा। कैंटीन और गेस्ट हाऊस बिहार आर्ट थियेटर के लोग चलाएंगे। नगर निगम से नक्शा पास कराया जाएगा। एयरपोर्ट एवं फायर अथॉरिटी से एनओसी मिलने के बाद नक्शा पास कराने के लिए अप्लाई कराया जाएगा।

बिहार आर्ट थियेटर ने दिए कई कलाकार
पटना रंगमंच से जुड़े रहने वाले कई रंगकर्मी आज सिनेमा जगत में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं। इनमें संजय त्रिपाठी, आशीष विद्यार्थी, संजय मिश्र, रामायण तिवारी मनेर वाले, विनोद सिन्हा, अखिलेंद्र मिश्र, विनीत कुमार, अजित अस्थाना, दिलीप सिन्हा आदि कई ऐसे लोगों का जुड़ाव पटना रंगमंच से रहा है, जिन्होंने बाद में ¨हदी फिल्मों में अपनी जगह बनाई।

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