पटना में CPI की रैली में नहीं दिखी भीड़, BJP को भगाने से बड़ी जनता को जोडऩे की चुनौती
पटना में आयोजित भाकपा की भाजपा भगाओ देश बचाओ रैली में युवा नेता के रूप में कन्हैया की बिहार में लॉन्चिंग हुई। हालांकि, भीड़ अपेक्षा से कम रही। इसके निहितार्थ टटोलती खबर।
पटना [अरुण अशेष]। देश से भाजपा को भगाने के लिए आयोजित भाकपा की रैली का संदेश यह है कि पार्टी सबसे पहले जनता के करीब पहुंचने की गंभीर कोशिश करे। पटना के गांधी मैदान में हुई गुरुवार की रैली को अगर भीड़ के पैमाने पर देखें तो यही पता चलेगा कि भाकपा अपने जनाधार से लगातार दूर जा रही है। नए इलाके में उसका विस्तार नहीं हो रहा है और मधुबनी-बेगूसराय जैसे आधार इलाके भी कमजोर हो रहे हैं।
एक मंच पर आईं भाजपा विरोधी पार्टियां
भीड़ की बुनावट यही बता रही थी कि पार्टी से नौजवानों का जुड़ाव नियोजित तरीके से नहीं हो रहा है। फिर भी पार्टी के लिए यह राहत की बात हो सकती है कि साधनों की कमी के बावजूद उसकी रैली अपने मकसद में कामयाब हुई। भाजपा के विरोध में खड़ी लगभग सभी पार्टियांं मंच पर थीं। पार्टी के नए नेता के तौर पर कन्हैया कुमार की लॉन्चिंग सफल रही।
रैली में नहीं दिखी वो पुरानी भीड़
पटना के लोगों ने वह दौर भी देखा है, जब भाकपा की रैली के दिन भीड़ के चलते आम लोगों का सड़क पर चलना मुहाल हो जाता था। कम से कम दो दिन शहर अस्त व्यस्त रहता था। आज की रैली का कोई असर शहरी जनजीवन पर नहीं पड़ा। सबकुछ आम दिनों की तरह चलता रहा। हाजीपुर के बुजुर्ग कामरेड बासुदेव प्रसाद सिंह कहते हैं- भीड़ के बारे में कुछ मत पूछिए। सिंह 1960 से कम्युनिस्ट पार्टी में हैं। खुल कर कह नहीं पाए कि राज्य स्तरीय रैली में इतनी कम भीड़ कभी नहीं आई थी।
वैसे, भीड़ जुटाने के लिए कन्हैया कुमार ने राज्य के कई जिलों का दौरा किया था। भीड़ जैसी भी थी, उसे जुटाने में कन्हैया का भी योगदान माना गया।
1990 के बाद हुआ जनाधार में क्षरण
दरअसल, पार्टी की यह हालत एक दिन में नहीं बनी है। 1990 के बाद यह सब हुआ। तत्कालीन जनता दल से गठजोड़ के बाद संसद और विधानसभा में पार्टी की स्थिति मजबूत हुई। इधर उसके जनाधार में क्षरण शुरू हो गया। उससे जुड़े लोग राजद और दूसरे दलों के प्रभाव में आने लगे।
लगातार पिछड़ती चली गई भाकपा
उस समय कुछ नेताओं ने चेतावनी दी थी। लेकिन, भाजपा को रोकने के नाम पर चेतावनी अनसुनी कर दी गई। नतीजा भाजपा मजबूत हुई। जनता दल नामधारी दलों का आधार मजबूत हुआ। भाकपा लगातार पिछड़ती चली गई। आज की तारीख में उसका कोई विधायक बिहार विधानसभा में नहीं है।
महंगी पड़ी जनता के सवालों से दूरी
कम्युनिस्ट पार्टियां जनता के सवालों पर आन्दोलन संगठित कर मजबूत बनती हैं। भाकपा ने यह रास्ता लगभग छोड़ दिया। यह ठीक है कि हालत बदले हैं। कृषि संबंध बदल गए हैं। खेतिहर श्रम विवाद न के बराबर हैं। लेकिन इन सबसे कहीं अधिक गंभीर सवाल शिक्षा, रोजगार और रिश्वतखोरी के हैं। भाकपा इन मुददों पर आन्दोलन विकसित करने में सफल नहीं रही।
वजूद बचाने का बस यही एक उपाय...
वजूद बचाने का एक ही उपाय उसके पास रह गया है। वह भाजपा विरोधी दलों के मोर्चे में शामिल होकर संसद और विधानसभा में अपनी मौजूदगी दर्ज करा ले। यही उसकी उपलब्धि होगी। हालांकि, लोकसभा के पिछले चुनाव में उसने राज्य में सत्तारूढ़ जदयू के साथ चुनावी तालमेल किया था। उसका अनुभव अच्छा नहीं रहा। अगले साल वह राजद की अगुआई वाले महागठबंधन से जुडऩे जा रही है।