जयंती पर विशेष: माफ कीजिए, हम सब आपको भूल गए बटुकेश्वर दत्त...
सेंट्रल असेंबली में भगत सिंह के साथ बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त की 108वीं जयंती रविवार को चुपचाप गुजर गई। कहीं कोई आयोजन नहीं। कहीं कोई श्रद्धांजलि नहीं।
By Amit AlokEdited By: Published: Sun, 18 Nov 2018 09:53 PM (IST)Updated: Sun, 18 Nov 2018 10:30 PM (IST)
पटना [कुमार रजत]। कम से कम आज जो नाम शहर की जुबां पर होना चाहिए था, वह एक गली के मुहाने की बोर्ड पर बस लिखा रह गया। जो दिन जिंदाबाद के नारों से गूंजना था, वह खामोशी से गुजर गया। यह नाम है महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का और खास दिन था- उनकी 108वीं जयंती का।
सेंट्रल असेंबली में भगत सिंह के साथ बम फेंककर अंग्रेजों का दिल दहलाने वाले बटुकेश्वर दत्त को शहर ने भुला सा दिया है। जक्कनपुर में उनके घर बीके दत्त मेंशन को जाने वाली सड़क के मुहाने पर लगा बोर्ड 'बटुकेश्वर दत्त लेन' भी विज्ञापनों से आधा ढंका है। रविवार को उनकी 108वीं जयंती चुपचाप गुजर गई। कहीं कोई आयोजन नहीं। कहीं कोई श्रद्धांजलि नहीं।
ये वहीं बटुकेश्वर दत्त हैं, जिनके साथ भगत सिंह की जोड़ी को लोग 'दत्त-भगत' के नाम से पुकारते थे। वही बटुकेश्वर दत्त, जो फांसी के बदले उम्र कैद की सजा मिलने पर निराश हो गए थे तब भगत सिंह ने उन्हें जेल से पत्र लिखा था कि तुम जिंदा रहकर ये दिखाना कि क्रांतिकारी सिर्फ मरना नहीं जानते, कष्ट झेलना भी जानते हैं। अफसोस, बटुकेश्वर दत्त ने ताउम्र कष्ट झेला भी।
बेटी-नाती ने तस्वीर पर चढ़ाई माला
जक्कनपुर में रहने वाली उनकी बेटी और पूर्व प्रोफेसर भारती बागची दिनभर कमरे में पिता की यादों के साथ बंद रहीं। उनके फ्लैट में घुसते ही दीवार पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की तस्वीर लगी है। रविवार की सुबह इस तस्वीर पर एक माला चढ़ाकर बेटी ने पिता को याद किया।
साथ में नाती अभिक बागची भी थे। अभिक बताते हैं, नानाजी की जयंती तो थी मगर कहीं से किसी समारोह का बुलावा नहीं आया था। मां की तबीयत भी खराब है, इसलिए वे दिनभर चुपचाप कमरे में लेटी रहीं।
एक प्रतिमा थी, मगर वह भी हट गई
तीन-चार साल पहले ही सचिवालय के शहीद स्मारक के पास बटुकेश्वर दत्त की प्रतिमा लगाई गई थी, मगर पुल निर्माण के कारण पिछले साल उसे हटा दिया गया। जब इस बारे में पता किया गया तो अधिकारियों ने बताया कि पुल निर्माण के बाद प्रतिमा को फिर उसी जगह स्थापित कर दिया जाएगा। भारती बागची कहती हैं, बस यही चाहत है कि उनकी प्रतिमा ऐसी जगह लगाई जाए, जहां लोगों का आना-जाना हो। पिताजी को भले ही पटना और बिहार के लोग कम याद करें मगर पंजाब और दिल्ली में उनका नाम दत्त-भगत की जोड़ी के रूप में आज भी याद किया जाता है।
मिली थी कालापानी की सजा
असेंबली कांड के बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को तो फांसी हो गई मगर बटुकेश्वर दत्त को अंडमान जेल में 'कालापानी' की सजा काटने भेज दिया गया। वहां से 1938 के आसपास वे बांकीपुर जेल शिफ्ट किए गए। जेल में ही उनकी तबीयत बिगड़ी जिसके बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
जेल से बाहर आने के बाद वे फिर से आजादी की लड़ाई में सक्रिय हो गए। देश को जिस साल आजादी मिली, उसी साल 1947 में अंजली दत्त से शादी की। सरकार ने लोन पर उन्हें जक्कनपुर में जमीन दी जहां उनके जिंदगी के बाकी साल कटे।
भारती बागची कहती है, पिताजी ताउम्र इस बात को लेकर घुटते रहे कि आजाद भारत में उन्हें वह आदर और सम्मान नहीं मिला। लगभग छह महीने तक यहां बीमार रहे मगर कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। बाद में पंजाब सरकार की पहल पर उन्हें दिल्ली एम्स में भर्ती कराया गया।
भगत सिंह की मां मानती थी बेटा
भारती बागची कहती हैं, बटुकेश्वर दत्त छह महीने तक एम्स में भर्ती रहे। जैसे ही उनके बीमार होने व एम्स आने की खबर मिली, पंजाब से भगत सिंह की जी मां अस्पताल आ गईं। वे बटुकेश्वर दत्त को अपना दूसरा बेटा मानती थीं। जब तक पिताजी अस्पताल में रहे, वे वहीं चादर बिछाकर सोतीं।
कैंसर के कारण 20 जुलाई 1965 को उन्होंने अंतिम सांस ली। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, हुसैनीवाला में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के पास ही उनकी समाधि बनाई गई।
सेंट्रल असेंबली में भगत सिंह के साथ बम फेंककर अंग्रेजों का दिल दहलाने वाले बटुकेश्वर दत्त को शहर ने भुला सा दिया है। जक्कनपुर में उनके घर बीके दत्त मेंशन को जाने वाली सड़क के मुहाने पर लगा बोर्ड 'बटुकेश्वर दत्त लेन' भी विज्ञापनों से आधा ढंका है। रविवार को उनकी 108वीं जयंती चुपचाप गुजर गई। कहीं कोई आयोजन नहीं। कहीं कोई श्रद्धांजलि नहीं।
ये वहीं बटुकेश्वर दत्त हैं, जिनके साथ भगत सिंह की जोड़ी को लोग 'दत्त-भगत' के नाम से पुकारते थे। वही बटुकेश्वर दत्त, जो फांसी के बदले उम्र कैद की सजा मिलने पर निराश हो गए थे तब भगत सिंह ने उन्हें जेल से पत्र लिखा था कि तुम जिंदा रहकर ये दिखाना कि क्रांतिकारी सिर्फ मरना नहीं जानते, कष्ट झेलना भी जानते हैं। अफसोस, बटुकेश्वर दत्त ने ताउम्र कष्ट झेला भी।
बेटी-नाती ने तस्वीर पर चढ़ाई माला
जक्कनपुर में रहने वाली उनकी बेटी और पूर्व प्रोफेसर भारती बागची दिनभर कमरे में पिता की यादों के साथ बंद रहीं। उनके फ्लैट में घुसते ही दीवार पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की तस्वीर लगी है। रविवार की सुबह इस तस्वीर पर एक माला चढ़ाकर बेटी ने पिता को याद किया।
साथ में नाती अभिक बागची भी थे। अभिक बताते हैं, नानाजी की जयंती तो थी मगर कहीं से किसी समारोह का बुलावा नहीं आया था। मां की तबीयत भी खराब है, इसलिए वे दिनभर चुपचाप कमरे में लेटी रहीं।
एक प्रतिमा थी, मगर वह भी हट गई
तीन-चार साल पहले ही सचिवालय के शहीद स्मारक के पास बटुकेश्वर दत्त की प्रतिमा लगाई गई थी, मगर पुल निर्माण के कारण पिछले साल उसे हटा दिया गया। जब इस बारे में पता किया गया तो अधिकारियों ने बताया कि पुल निर्माण के बाद प्रतिमा को फिर उसी जगह स्थापित कर दिया जाएगा। भारती बागची कहती हैं, बस यही चाहत है कि उनकी प्रतिमा ऐसी जगह लगाई जाए, जहां लोगों का आना-जाना हो। पिताजी को भले ही पटना और बिहार के लोग कम याद करें मगर पंजाब और दिल्ली में उनका नाम दत्त-भगत की जोड़ी के रूप में आज भी याद किया जाता है।
मिली थी कालापानी की सजा
असेंबली कांड के बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को तो फांसी हो गई मगर बटुकेश्वर दत्त को अंडमान जेल में 'कालापानी' की सजा काटने भेज दिया गया। वहां से 1938 के आसपास वे बांकीपुर जेल शिफ्ट किए गए। जेल में ही उनकी तबीयत बिगड़ी जिसके बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
जेल से बाहर आने के बाद वे फिर से आजादी की लड़ाई में सक्रिय हो गए। देश को जिस साल आजादी मिली, उसी साल 1947 में अंजली दत्त से शादी की। सरकार ने लोन पर उन्हें जक्कनपुर में जमीन दी जहां उनके जिंदगी के बाकी साल कटे।
भारती बागची कहती है, पिताजी ताउम्र इस बात को लेकर घुटते रहे कि आजाद भारत में उन्हें वह आदर और सम्मान नहीं मिला। लगभग छह महीने तक यहां बीमार रहे मगर कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। बाद में पंजाब सरकार की पहल पर उन्हें दिल्ली एम्स में भर्ती कराया गया।
भगत सिंह की मां मानती थी बेटा
भारती बागची कहती हैं, बटुकेश्वर दत्त छह महीने तक एम्स में भर्ती रहे। जैसे ही उनके बीमार होने व एम्स आने की खबर मिली, पंजाब से भगत सिंह की जी मां अस्पताल आ गईं। वे बटुकेश्वर दत्त को अपना दूसरा बेटा मानती थीं। जब तक पिताजी अस्पताल में रहे, वे वहीं चादर बिछाकर सोतीं।
कैंसर के कारण 20 जुलाई 1965 को उन्होंने अंतिम सांस ली। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, हुसैनीवाला में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के पास ही उनकी समाधि बनाई गई।
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