विधानसभा चुनाव : क्षेत्रीय दलों से दोस्ती ने किया कांग्रेस का नुकसान
बिहार विधानसभा का चुनाव इस बार कांग्रेस के लिए करो या मरो की स्थिति लेकर आया है। अब कांग्रेस के लिए यह अपनी खोई जमीन हासिल करने का एक मौका है। इसके लिए उसे जी जान एक करना होगा।
पटना। बिहार विधानसभा का चुनाव इस बार कांग्रेस के लिए करो या मरो की स्थिति लेकर आया है। अब कांग्रेस के लिए यह अपनी खोई जमीन हासिल करने का एक मौका है। इसके लिए उसे जी जान एक करना होगा। यदि बिहार विधानसभा के इस चुनाव में कांग्रेस अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने से चूक गयी तो उसके लिए भविष्य की चुनौतियां और बड़ी तथा विकराल होंगी।
बिहार में कांग्रेस का अतीत 80 के दशक तो वैभवशाली रहा, लेकिन बाद में राजीव गांधी के न रहने पर कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा संकट था खुद के लिए विश्वसनीय चेहरे की तलाश। इसके अलावा उसे भीतर और बाहर की तमाम चुनौतियों से भी दो चार होना पड़ रहा था।
अस्तित्व बचाए रखने की चिंता से भी वह दो चार हो रही थी। इन्हीं स्थितियों में देश की सबसे बड़ी पार्टी को क्षेत्रीय दलों से समझौता करना पड़ा। कांग्रेस की इस कोशिश को धुर कांग्रेसी जायज कह सकते हैं। उस वक्त की परिस्थितियों के आलोक में उनके तर्क होंगे कि राजीव गांधी के न रहने की स्थिति में कांग्रेस अंदर ही अंदर खेमों में बंट चुकी थी और कांग्रेस के ही कुछ पुराने दिग्गज कांग्रेस को हाइजैक करने की कोशिश में लगे थे।
उनकी इसी कोशिश का नतीजा था कि मजबूरी में आकर कांग्रेस ने क्षेत्रीय दलों से समझौता किया। उस वक्त समस्या थी देश के स्तर पर कांग्रेस की पहचान कायम रखना। नतीजा, राज्यों के अंदर कांग्रेस की पकड़ कम होती चली गई।
बिहार में उस वक्त राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद का करिश्मा लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था। लालू के इस करिश्मे से कांग्रेस भी खुद को बचा नहीं सकी। जानकारों की मानें तो लालू प्रसाद ने मुश्किल में फंसी कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर पर मदद तो खूब की, लेकिन सचेत ढंग से बिहार में कांग्रेस की जड़ें भी कमजोर कीं।
1990 के बाद से बिहार कांग्रेस में जितने भी अध्यक्ष हुए उनकी क्षमता का या तो भरपूर इस्तेमाल करने में कांग्रेस से चूक हो गई या फिर वैसे लोगों ने जानबूझकर पार्टी को हाशिये पर जाने दिया और कुछ करने से बचते रहे। 90 के बाद धीरे-धीरे कांग्रेस की स्थिति प्रदेश में ऐसी हो गई कि दोबारा अपने बलबूते सत्ता में आने का उसका मनसूबा आज तक पूरा नहीं हो पाया।
हालांकि, कांग्रेस ने कई बार अपने अकेले दम पर भी लोकसभा या फिर विधानसभा चुनाव में जोर आजमाइश की परन्तु हर बार उसे मुंह की ही खानी पड़ी। जिन क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को एक समय में केंद्र के स्तर पर बड़ी मदद पहुंचाई थी वे ही अब कांग्रेस के लिए काल का ग्रास बने हुए थे।
लालू प्रसाद ने कांग्रेस के मुस्लिम वोट में छेद कर दिया था, जिसकी काट कांग्रेस को आज तक नहीं मिली। शायद यही वजह रही कि 2005 के बाद से कांग्रेस ने लालू प्रसाद से दूरी बनाने का जो सिलसिला शुरू किया वह आज तक जारी है।
बहरहाल, समय के साथ बिहार में लालू प्रसाद भी कमजोर हुए, मगर कांग्रेस उस वक्त भी इसका फायदा नहीं ले सकी। इसका फायदा किसी और को मिला। अब वक्त ने एक बार फिर करवट लेनी शुरू की है तो बिहार के बड़े क्षेत्रीय दल एक छत के नीचे साथ खड़े हैं, जिनमें कांग्रेस भी शामिल है।
यह समय का तकाजा है कि कांग्रेस को गठबंधन में 40 सीटें मिली हैं। राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि गठबंधन में शामिल कांग्रेस को उम्मीद से ज्यादा सीटें देने का मूल मकसद वैसे वोट बैंक को अपने पाले में खड़ा करना है, जो कल भी कांग्रेस के वोटर थे और आज भी हैं। देखना यह होगा कि कांग्रेस इस चुनाव में राजद के साथ रहते हुए भी उससे दूरी बनाने और अपनी खोई प्रतिष्ठा हासिल करने में कहां तक सफल होती है।
फिलहाल कांग्रेस के नेता बिहार में अपनी खोई साख और प्रतिष्ठा के लिए जी जान लगा रहे हैं।