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बिहार: सरकारी कार्यालयों में बहुत कुछ बदला, पर नहीं बदल रही है बाबुओं की मानसिकता

बिहार में सरकारी कार्यालयों में बहुत कुछ बदला है। कई विभाग कंप्‍यूटराइज हो गए हैं। लेकिन कार्यालयों में लोगों की मानसिकता नहीं बदली है। फाइलों पर बैठने की आदत भी वही है।

By Rajesh ThakurEdited By: Published: Sun, 29 Dec 2019 06:05 PM (IST)Updated: Sun, 29 Dec 2019 10:12 PM (IST)
बिहार: सरकारी कार्यालयों में बहुत कुछ बदला, पर नहीं बदल रही है बाबुओं की मानसिकता
बिहार: सरकारी कार्यालयों में बहुत कुछ बदला, पर नहीं बदल रही है बाबुओं की मानसिकता

पटना, अरुण अशेष। अगर 15 साल पहले के सरकारी दफ्तरों का स्मरण करें और आज से उसकी तुलना करें तो बहुत बड़ा बदलाव नजर आएगा। कह सकते हैं कि सबकुछ बदल गया है। अगर किसी एक मामले में बड़ा बदलाव नहीं हुआ है तो वह है फाइलों पर बैठने की आदत। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की इस बात के लिए बेशक सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने आम लोगों से जुड़ी अधिसंख्य सेवाओं को जनता के अधिकार के दायरे में ला दिया है। यानी कोई आदमी किसी सेवा के लिए अर्जी दे तो वह उसे एक निश्चित अवधि में हासिल हो जाएगा। बेशक, इसका असर पड़ा है। फिर भी यह मुख्यमंत्री की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं है।

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जाहिर है, यह जनता की अपेक्षाओं को भी पूरा नहीं कर पा रहा है। सरकारी दफ्तरों के काम करने का अपना ढर्रा है। उस पर बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ा है। आम लोगों की बात छोड़ दीजिए। सरकार के सचिवालय से होने वाले पत्राचार पर गौर कीजिए तो कई ऐसी चीजें मिलेंगी, जिससे पता चलेगा कि फाइल पर बैठने की आदत गई नहीं है। मसलन, मुख्यालय से जिला इकाई को एक पत्र जाता है कि अमुक जानकारी तीन दिनों के भीतर उपलब्ध करा दें। तीन दिन नहीं, तीन महीने के बाद उसी जानकारी के लिए उसी अधिकारी को फिर से पत्र लिखना पड़ता है कि महोदय, अमुक जानकारी अविलंब उपलब्ध करा दें। जानकारी फिर भी नहीं मिलती है। इसके बाद एक कड़ी चिट्ठी लिखी जाती है। उसमें धमकी देने का भाव रहता है। तब कहीं जाकर जरूरी जानकारी मुख्यालय तक पहुंच पाती है।

सरकार के कार्य विभागों के पत्राचार में बिना अपवाद के ऐसी विसंगतियां नजर आएंगी। यह देखने के लिए आरटीआइ का भी सहारा नहीं लेना पड़ेगा। सरकार के कार्य विभागों के वेबसाइट पर जाइए। खुद देख लीजिए कि प्रधान सचिव, सचिव और अभियंता प्रमुख तक के पत्रों का क्या हश्र है। सोचने की बात है कि बड़े सरकारी अधिकारियों की मांग का यह हाल है तो आम जनता के साथ क्या होता होगा। शीर्ष स्तर पर कोई अच्छी व्यवस्था इस उम्मीद से की जाती है कि सिस्टम के सभी लोग उसका सम्मान करेंगे। उसे आदर्श स्थिति में लागू करेंगे। इसी के लिए सिस्टम में कई श्रेणियां बनाई गईं हैं। प्रोपर चैनल बनाया गया है, लेकिन व्यवहार में देखा जाता है कि इस प्रोपर चैनल के एक हिस्से में भी गड़बड़ी हुई, सुस्ती आई तो सब कुछ ठहर जाता है। अब शीर्ष पर बैठे आदमी से तो यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह अफसर से लेकर बड़ा, मंझला और छोटा बाबू तक का काम करे। सब काम वही करे तो सिस्टम की जरूरत क्या रह जाएगी।

कहने के लिए तो दफ्तरों के सभी काम ऑनलाइन हो रहे हैं। कागजी काम का झंझट खत्म हो रहा है। इसमें सच्चाई भी है, लेकिन मशीन के सामने बैठे आदमी की मानसिकता नहीं बदली है। कागज को बढ़ाने की जगह माउस को खिसकाने के एवज में वह सामने वाले से कुछ अपेक्षा करता है तो कंप्यूटर क्या कर लेगा। सरकार का बहुत जोर है कि जमीन के सभी व्यवहार कागज के बदले कंप्यूटर पर हों। इसके लिए धन खर्च हो रहा है। जानकार लोग बहाल हो रहे हैं। म्यूटेशन से लेकर लगान जमा करने तक का काम ऑनलाइन हो रहा है। काम हो रहा है। लेकिन कुछ अंचल ऐसे भी हैं, जिसकी उपलब्धि बताती है कि इनके काम को रफ्तार मिलने में बहुत वक्त लगेगा।

सुधार तो पुलिस महकमे में भी खूब हुआ है। नए भवन, नई-नई गाडिय़ां, आधुनिक उपकरण और बहुत कुछ ऐसा मिला है, जिससे कहा जा सके कि पहले वाली पुलिस नहीं रही। उसके कामकाज में बहुत बदलाव हो गया है। बदलाव हुआ है। अब घटना स्थल पर पुलिस जल्दी से पहुंच जाती है। अपराधियों को पकड़ भी लेती है,लेकिन अदालत में उसे सजा दिलाने के मोर्चे पर बड़ा बदलाव नजर नहीं आता है। उस आदमी से पूछिए जिसे पाला पड़ा है। वह यही कहेगा कि कुछ खास नहीं बदला है। अदालत तक किसी अभियुक्त की केस डायरी भिजवाने में वही कर्मकांड आज भी करना पड़ता है जो पहले करना पड़ता था। रसूख है। पैरवी है तो यह काम आसानी से हो जाता है। गरीब-निरीह के लिए थाना से अदालत केस डायरी भिजवाना आज भी आसान नहीं हुआ है। यह किस्सा हाल का है: जिस आदमी की हत्या के आरोप में लोगों को जेल भेज दिया गया था, वह आदमी मरा नहीं, जिन्दा था।


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