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Bihar Election 2020: विधानसभा चुनाव से पहले महागठबंधन और एनडीए अपने ही घटक दलों से लड़ रहे

Bihar Election 2020 चुनाव नजदीक है और बिहार के दोनों ही बड़े गठबंधन अपने घटक दलों के साथ सीट के बंटवारे पर जूझ रहे हैं। विपक्षी गठबंधन बिखर चुका है तो एनडीए की हालत भी अच्छी नहीं है। उसका एक महत्वपूर्ण घटक लोजपा अनिर्णय की स्थिति में है।

By Sumita JaiswalEdited By: Published: Tue, 29 Sep 2020 03:17 PM (IST)Updated: Wed, 30 Sep 2020 10:05 AM (IST)
Bihar Election 2020: विधानसभा चुनाव से पहले महागठबंधन और एनडीए अपने ही घटक दलों से लड़ रहे
बिहार चुनाव में गठबंधनों की खींचतान पर सांकेतिक तस्‍वीर।

पटना, अरुण अशेष। Bihar Election 2020: विधानसभा चुनाव में आमने- सामने की लड़ाई से पहले महागठबंधन और एनडीए अपने घटक दलों से लड़ रहे हैं। चुनाव के दिनों में अधिक से अधिक सीटों पर उम्मीदवार देने की ललक सभी दलों में होती है। मामला एक से अधिक दलों के सहयोग से चुनाव लडऩे का हो तो विवाद भी होता ही है। 2015 के विधानसभा चुनाव की तुलना करें तो इस साल यह बहुत अधिक है। पिछले साल लोकसभा चुनाव के समय बना विपक्षी गठबंधन बिखर चुका है तो एनडीए की हालत भी अच्छी नहीं कही जा सकती है। उसका एक महत्वपूर्ण घटक लोजपा अनिर्णय की स्थिति में है।

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2014 में शुरू हुए विवाद से बाहर नहीं निकल पाया एनडीए

पहले सुगठित एनडीए की बात करें। बिहार एनडीए में जब तक दो दलों-भाजपा और जदयू की भागीदारी रही, सबकुछ ठीक रहा। यहां तक कि 2000 में समता पार्टी से अधिक विधायक रहने के बावजूद भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए दावा पेश नहीं किया। 2005 के चुनाव मेें भी मामूली दिक्कत के बाद भाजपा ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया। लेकिन, 2014 में जदयू के अलग होने और लोजपा-रालोसपा के शामिल होने के साथ जो विवाद की नींव पड़ी उससे एनडीए बाहर नहीं निकल पाया है।

मांझी के आते ही शुरू हुआ विवाद

पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी हिन्दुतानी अवामी मोर्चा का एनडीए में पदार्पण हुआ, विवाद का पिटारा ही खुल गया। फिलहाल एनडीए को लोजपा के रूख से नुकसान हो रहा है। लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान ने कभी आधिकारिक तौर पर यह नहीं कहा कि उनकी पार्टी का मुख्य लक्ष्य नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू को परास्त करना है। लेकिन, लोजपा की कतारों में यह संदेश साफ-साफ पहुंच गया कि इस चुनाव में हमें अपनी जीत से अधिक जदयू की हार की गारंटी करनी है। इस संदेश का असर है। जमीन पर जदयू और लोजपा के कार्यकर्ता आमने सामने खड़े हो गए हैं। जदयू कार्यकर्ताओं के मन में भी लोजपा के प्रति दुश्मनी का भाव उत्पन्न हो गया है। दरार इस हद तक है कि अब अगर लोजपा से एनडीए का समझौता भी हो जाए तो चुनाव में लोजपा और जदयू के कार्यकर्ता एक दूसरे के उम्मीदवार की मदद नहीं करेंगे।

महागठबंधन फिर भी सहज

विवाद के बावजूद महागठबंधन अपेक्षाकृत सहज स्थिति में है। उसके दो सहयोगी अलग हुए। हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा और रालोसपा का महागठबंधन से जुड़ाव महज साल भर पुराना था। दोनों दलों के कार्यकर्ता लोकसभा चुनाव के समय भी एक नहीं हो पाए थे। वे मानकर चल रहे थे कि महागठबंधन में इन दोनों दलों का प्रवेश अस्थायी करार के तहत है। इसलिए उन दोनों के साथ रहने से महागठबंधन के मूल घटक दलों को ज्यादा खुशी नहीं थी। उनके जाने का गम भी नहीं है। मूल रूप से राजद की दोस्ती वाम दलों और कांग्रेस के साथ रही है। बीच के कुछ चुनावों में अलगाव के बावजूद 1990 से लेकर अबतक ये तीनों साथ चुनाव लड़ते रहे हैं। फिर भी सीटों की खींचतान के चलते इन दलों के कार्यकर्ताओं में भी असमंजस है।

खींचतान से सिर्फ नुकसान

दलों के भीतर छिड़े विवाद का साइड इफेक्ट भी है। जब यह संदेश कार्यकर्ताओं के बीच जाता है कि उनका दल अकेले चुनाव लड़ रहा है तो उम्मीदवार बनने की उनकी इच्छा होती है। धीरे धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। ऐसे में अचानक यह पता चले कि दल का किसी और दल के साथ गठबंधन हो गया है, उनका मनोबल टूट जाता है। वे चुनाव में अपने उम्मीदवार की जीत के बदले हार के लिए काम करने लगते हैं। कार्यकर्ताओं की मनोदशा इसबार भी है। यह कुछ सीटों पर तीसरे मोर्चे की संभावना को मजबूत कर सकता है। इनमें से कुछ मजबूत कार्यकर्ता तीसरे मोर्चे के किसी दल से उम्मीदवार बनकर अपने पुराने दल के सामने परेशानी पैदा कर सकते हैं।


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