World Radio Day Special: 'चौपाल' के 'बटुक भाई' को याद आता है रेडियो का वो गुजरा जमाना
World Radio Day Special एक जमाना रेडियो का था। टीवी व इंटरनेट बाद में आए। तब बिहार में आकाशवाणी का चौपाल कायक्रम काफी लोकप्रिय था। उसके अहम किरदार रहे बटुक भाई से बातचीत।
कुमार रजत, पटना। World Radio Day Special: एक जमाना रेडियो का भी था। वो जमाना जब रेडियो बजता तो पूरा घर सुनता था। वो जमाना जब रेडियो को सुनने के लिए चौपाल जमती थी। आकाशवाणी की बात करें तो बिहार में एक चौपाल रेडियो पर भी जमती थी, रोज शाम 6:30 से 7:30 बजे तक। यूं तो चौपाल अब भी जमती है, मगर अब उसमें बटुक भाई नहीं आते। न गीता दीदी आती हैं और न ही आते हैं मुखिया जी और बुद्धन भाई। ये उस चौपाल के अहम किरदार थे, जो उस जमाने में दिलों पर राज करते थे।
बाकी लोग तो रहे नहीं, बटुक भाई बनकर रेडियो पर ग्रामीणों का दुख-सुख बांटने वाले छात्रानंद सिंह झा अब भी हैं। पटना के पाटलिपुत्र कॉलोनी में रहने वाले बटुक भाई से जब हमने रेडियो दिवस की पूर्व संध्या बात की तो कई पुराने पन्ने खुलने लगे।
बताया: छोटा था इसलिए पड़ा 'बटुक भाई' नाम
छात्रानंद सिंह उर्फ बटुक भाई कहते हैं, ''आकाशवाणी पटना पर चौपाल की शुरुआत 26 जनवरी 1948 को हुई। मैं 15 मई 1968 को जुड़ा। उस समय ही ग्रामीण इलाकों को ध्यान में रखकर बनाया गया चौपाल कार्यक्रम बहुत प्रसिद्ध था। इस कार्यक्रम में मुखिया जी (गौरीकांत चौधरी कांत) हिंदी में, गीता बहन (पार्वती सिन्हा) मगही में और बुद्धन भाई (गोपाल कृष्ण शर्मा) भोजपुरी में प्रस्तुति देते थे। मैं जब जुड़ा तो मेरी उम्र इन सबसे बहुत कम थी और मैं देखने में भी छोटा था इसलिए मेरे किरदार का नाम बटुक भाई रखा गया।''
श्रोताओं को दिलाते थे अपनेपन का एहसास
उन्होंने बताया, ''हम चौपाल कार्यक्रम में अपनी-अपनी भाषा में ऐसे बात करते जैसे गांव के दालान पर कोई चर्चा हो रही हो। बिहार की हर क्षेत्रीय भाषा का प्रतिनिधित्व होने से सुनने वालों को भी अपनेपन का एहसास होता था।''
खेती-किसानी से ग्रामीण सरोकारों तक पर बात
छात्रानंद सिंह बताते हैं कि चौपाल कार्यक्रम में खेती-किसानी से लेकर ग्रामीण जीवन के सरोकारों पर बात होती। डॉक्टर बुलाए जाते तो कृषि वैज्ञानिक भी। श्रोताओं की चिट्ठियों में आने वाले सवालों के जवाब दिए जाते। यह पूछे जाने पर कि सबसे अधिक चिट्ठियां कहां से आती थीं- छात्रानंद सिंह कहते हैं, सासाराम, आरा, बक्सर यानी भोजुपरी इलाके से।
रेडियो का था वह दौर, अब वो बात कहां?
छात्रानंद सिंह झा बताते हैं कि रेडियो सुनने वालों ने जगह-जगह रेडियो क्लब बनाया हुआ था। लोग पैसे देकर इसकी सदस्यता लेते। सिर्फ इस मोह में कि उनका नाम भी रेडियो पर लिया जाएगा। वह दौर सिर्फ और सिर्फ रेडियो का था। अब ऐसी लोकप्रियता कहां किसी कार्यक्रम की! यह पूछे जाने पर कि क्या अब आप रेडियो सुनते हैं, वे कहते हैं, अब नहीं सुन पाता। एक तो सूचना के बहुत से साधन हैं, दूसरा रेडियो में पहले वाली बात भी नहीं। उस दौर में रेडियो पर एक से एक कार्यक्रम आते।
रामचरित मानस का पाठ व लोहा सिंह नाटक
छात्रानंद सिंह झा बताते हैं, आकाशवाणी पर आने वाला रामेश्वर सिंह कश्यप का नाटक 'लोहा सिंह' भी बहुत प्रसिद्ध हुआ था। प्रादेशिक समाचार तो सबसे ज्यादा सुना जाता था। इसके अलावा सुबह पांच बजकर 55 मिनट पर रेडियो शुरू होने पर सबसे पहले 15 मिनट रामचरितमानस का पाठ होता था। रात 11 बजकर 10 मिनट पर रेडियो बंद हो जाता था।