बिहार का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य और तेजस्वी के पलायनवाद के मायने
बिहार के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य से तेजस्वी यादव लगातार गायब हैं। एेसे में बिहार की बात करें तो यहां का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य एक तरह से विपक्ष विहीन हो गया है।
पटना [मनोज झा]। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि लोकसभा के हालिया चुनाव नतीजों ने न सिर्फ राष्ट्रीय, बल्कि कई राज्यों के सियासी परिदृश्य को भी उलट-पुलट कर रख दिया है। बिहार समेत ज्यादातर राज्यों में तो विपक्षी खेमा मानो सन्निपात की स्थिति में पड़ा है। बिहार की बात करें तो यहां का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य एक तरह से विपक्ष विहीन हो गया है।
चुनाव के दौरान बड़े-बड़े दावे और समीकरण बनाने में लगे विपक्ष के पांच दलों के महागठबंधन की फिलहाल तो कोई शक्ल-ओ-सूरत तक भी नजर नहीं आती। ज्यादातर घटक अपनी-अपनी ढफली निकालकर अपना-अपना राग अलाप रहे हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर जहां कांग्रेस में नेतृत्व के प्रश्न को लेकर भारी ऊहापोह और अनिर्णय की स्थिति ने विपक्ष का मोर्चा एक तरह से धराशायी कर दिया है, वहीं बिहार में महागठबंधन के तितर-बितर हालात के लिए एक हद तक लालू प्रसाद यादव की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनता दल को जिम्मेदार माना जा सकता है।
महागठबंधन की सबसे बड़ी ताकत बेशक राजद है, लेकिन फिलहाल वह सीन से पूरी तरह गायब है। अनिर्णय के मंझधार में फंसी कांग्रेस भी महागठबंधन में कोई रुचि लेती नहीं दिखाई दे रही है। इसके एक घटक हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) ने तो प्रदेश का आगामी विधानसभा चुनाव अकेले लडऩे का एलान भी कर दिया है। बाकी दो अन्य छोटे घटक दल भी गुमसुम से हैं।
जाहिर है कि बिहार में कम से कम इस समय महागठबंधन का न कोई नेता है न नीति और न ही कोई भावी रणनीति। सवाल है कि विपक्ष की यह छिन्न-भिन्न तस्वीर बनी कैसे?
चुनाव नतीजों के बाद से ही राजद की गतिविधियां सवालों के घेरे में हैं। पूरे 30 साल के बाद ऐसा पहली बार है कि बिहार के सियासी पटल पर न तो लालू प्रसाद और न ही उनकी पार्टी की कोई मौजूदगी दिख रही है। लालू तो फिलहाल जेल में हैं और उनकी पत्नी व पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी चुपचाप हैं, लेकिन सवाल है कि पार्टी के अगले खेवनहार तेजस्वी यादव कहां हैं? वह सीन से पूरी तरह गायब क्यों हैं? किसी को नहीं पता कि वह कहां हैं, कर क्या रहे हैं और उनकी आगामी तैयारियां क्या हैं?
पिछले सप्ताह पार्टी ने सदस्यता अभियान शुरू करने का जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया। बताया गया कि यह कार्यक्रम तेजस्वी के ही निर्देश पर रखा गया है। तय तारीख को पार्टी के तमाम नेता तो कार्यक्रम में पहुंच गए, लेकिन तेजस्वी समेत लालू परिवार का कोई भी सदस्य इसमें नहीं आया।
बताया जाता है कि राबड़ी ने तेजस्वी से फोन पर बातचीत भी की। फिर भी वह नहीं आए। इसी प्रकार 16 अगस्त को पटना में पार्टी के सभी विधायकों और सांसदों की बैठक बुलाई गई। बताया गया कि यह कार्यक्रम भी तेजस्वी की सहमति से रखा गया था। ऐन वक्त पर तेजस्वी ने इसमें आने से मना कर दिया।
पार्टी के तय कार्यक्रम से इस तरह बार-बार दूरी बनाने को लेकर अब तमाम सवाल उठने लगे हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह और शिवानंद तिवारी जैसे पार्टी के वरिष्ठ नेता भी तेजस्वी को निशाने पर लेने लगे हैं। हालांकि यह तो अभी ठीक-ठीक पता नहीं है कि तेजस्वी पार्टी में किससे या किस बात से नाराज हैं या फिर कोई अन्य सियासी तैयारी कर रहे हैं, लेकिन चुनाव के बाद से ही उनके लगातार गायब रहने के चलते पार्टी संगठन में नीचे तक ऊहापोह का वातावरण गहरा रहा है।
इससे आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर महागठबंधन के अन्य घटक दलों का भी संशय बढ़ रहा है। जाहिर है कि इससे विपक्ष की मोर्चाबंदी न सिर्फ कमजोर होगी, बल्कि घटक दलों, खासकर छोटी पार्टियों की निष्ठा डगमगा भी सकती है। एक स्वाभाविक सवाल यह भी है कि आखिर तेजस्वी की इस बेरुखी की वजह क्या है।
जानकारों के मुताबिक वह पार्टी की कमान खुद अपने हाथ में लेना चाहते हैं। मतलब कि वह पार्टी को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं। यदि ऐसा है कि तो इसका एक मतलब यह भी हुआ कि तेजस्वी प्रकारांतर से लालू के सियासी अंदाज और समीकरणों को मौजूदा परिदृश्य के लिए अनफिट मान रहे हैं।
हालांकि तेजस्वी अब तक अपनी कोई नई दृष्टि या सियासी शैली विकसित करने में सफल नहीं हो पाए हैं। लालू कई महीनों से जेल में हैं। तब से तेजस्वी ही पार्टी के सर्वेसर्वा के तौर पर काम कर रहे हैं। पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान वह अनगिनत बार संविधान और आरक्षण पर कथित खतरे की बात रटते रहे, लेकिन मतदाताओं ने उनकी एक न सुनी।
ऐसा इसलिए, क्योंकि जनता को सरजमीन पर ऐसा कोई खतरा दिखाई नहीं दिया। जनता तो अपने नेता से ठोस और तथ्यपूर्ण बातें सुनना चाहती है। तो फिर हवाई बातें और अबूझ नारे क्यों? दरअसल, मुश्किल यह है कि बीते चुनाव में तेजस्वी अपने को एक युवा सोच वाले नेता के तौर पर स्थापित करने में चूक गए।
वह यह नहीं समझ पाए कि राजनीति लालू के दौर से बहुत आगे निकल चुकी है। जाति, वर्ग और धर्म के घिसे-पिटे और हवाई नारों का दौर भी अपने अवसान की ओर है। आज का वोटर अपने नेता में विकास के प्रति दृष्टि और भविष्य की तैयारियां देखना चाहता है।
पार्टी की कमान थामने से पहले तेजस्वी को यह बात न सिर्फ गहरे तक समझनी होगी, बल्कि खम ठोंककर सियासी अखाड़े में कूदना भी पड़ेगा। अन्यथा बिहार में नीतीश कुमार की अगुआई में मजबूत राजग से दो-दो हाथ करना तेजस्वी के लिए लोहे के चने चबाने से कोई कम नहीं होगा।