पटना में बोले थे नामवर, यहां आए बगैर मर जाता तो आंखें खुली रह गई होतीं
नामवर सिंह का पटना भी कई बार आना हुआ था। राजधानी में रह रहे बुद्धिजीवियों के पास उनसे जुड़े यादों के कई पिटारे हैं। जानें क्या कहते थे वो..
कुमार रजत, पटना : अगर पटना पुस्तक मेले में आए बगैर मेरी मौत हो गई होती, तो ये आंखें खुली रह गई होतीं, चूंकि ये दृश्य देखना बाकी रह जाता। वर्ष 2003 में गांधी मैदान में आयोजित पटना पुस्तक मेले में साहित्यप्रेमियों की भीड़ देख नामवर सिंह ने यह बात कही थी। पटना पुस्तक मेले के आयोजक और लेखक रत्नेश्वर यह संस्मरण याद करते हुए कहते हैं, वे पटना की पठनीयता के बड़े प्रशंसक थे।
मुझे तो रोटी खानी है...
वरिष्ठ लेखिका पद्मश्री ऊषा किरण खान के पास तो यादों के कई पिटारे हैं। वे बताती हैं, पटना में राष्ट्रभाषा परिषद् के कार्यक्रम में नामवर जी आए थे। दोपहर 2:30 बजे जब कार्यक्रम खत्म हुआ तो सभी को नाश्ते का पैकेट दिया गया। नामवर सिंह जी मुंह ताकने लगे, कहा कि मुझे तो रोटी खानी है। अब सब एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। रामचंद्र खान जी ने कहा- चलिए हमारे घर। वे साथ आए, उस समय बच्चे गर्मी की छुट्टियों मे गांव गए थे। सहायक भी अपने गांव गया था। हम नामवर जी को सुनने की हड़बड़ी में अधिक साग सब्ज़ी नहीं बना पाए थे। ओल (सूरन) का भरता, परवल की सब्जी और गेन्हारी साग, दाल अजवाइन राइ से बघारी हुई बना गई थी। रोटी बनाया और तीनों ने खाया। नामवर जी तृप्त थे। कहा कि सूरन का भरता और दलसग्गा बचपन के बाद आज ही खा रहा हूं। बाद में जब मिलते तब उस भोजन की चर्चा जरूर करते।
आलोचना पर चुपचाप पान खाकर निहारते रहते
वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा कहते हैं, नामवर जी पटना से ज्यादा दिनों तक दूर नहीं रह पाते थे। मेरी उनसे आखिरी मुलाकाता कुछ वर्ष पूर्व पटना विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में हुई थी। ज्यादातर उनसे बात भोजपुरी में ही होती। वे अहंकारमुक्त और मृदुभाषी थे। आप उनकी एक घंटे भी आलोचना करें तो वे मुंह में पान और कसैली डालकर चुपचाप सुनते रहते, चेहरे के भाव एकदम एक समान रहते। ऐसे लोग विरले होते हैं। एक और वाकया याद आता है, जब प्रभाष जोशी के निधन पर पटना में कुछ युवाओं ने उनसे सवाल किया तो वे एकदम से चुप हो गए। मैंने पहली बार उनकी आंखों में तब आंसू देखे थे। प्रभाष जोशी भी नामवर जी का बड़ा सम्मान करते। उनके 70वें वर्ष पर प्रभाष जी ने दिल्ली, इलाहाबाद, वाराणसी सहित पटना में भी 'नामवर निमित्तÓ के नाम से आयोजन कराया था।
बड़े आलोचक, अद्वितीय शिक्षक
पटना विश्वविद्यालय के ङ्क्षहदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष मटुकनाथ कहते हैं, मैं तो नामवर जी से पढ़ा भी। नौकरी भी उनके आदेश से ही ज्वाइन की। मैं नामवर जी के मार्गदर्शन में एमफिल करना चाहता था मगर उसी समय पटना में नौकरी का ज्वाइनिंग लेटर आया, उन्होंने कहा कि एमफिल भी कर लीजिएगा मगर नौकरी ज्वाइन कीजिए। नौकरी इतनी आसानी से नहीं मिलती। वे कहते हैं, नामवर जी अद्वितीय शिक्षक थे। अपने विद्यार्थियों को बहुत ही प्यार करते थे।
विरोधी की भी सुनते थे
साहित्यकार कर्मेन्दु शिशिर कहते हैं, 10-12 साल पहले की बात होगी। रामगोपाल शर्मा रुद्र की जयंती पर नामवर जी अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने नए कवियों को लेकर आलोचनात्मक टिप्पणी की। जब मेरी बारी आई तो मैंने उनके विपरीत अपनी राय रखी। मेरा भाषण समाप्त होने के बाद बीच में नामवर जी पान थूकने के बहाने बाहर निकले, मैं भी उनके सम्मान में खड़ा हो गया। उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और कहा-तुम बहुत अच्छा बोले। अच्छा लगा। ये बताता है कि वे कितन डेमोक्रेट आदमी थे। विरोधी की भी सुनते थे। वे ऐसे आदमी थे जिसका संबंध अपनी पुरानी पीढ़ी से लेकर नवीनतम पीढ़ी तक रहा। बिहार गीत के रचयिता सत्यनारायण कहते हैं, पटना के कार्यक्रमों में नामवरजी से मिलना जुलना हो ही जाता था। वे अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण आलोचक थे।
उनके अंदर धड़कता था ग्रामीण दिल
साहित्यकार प्रेम कुमार मणि कहते हैं, जब हमलोगों ने साहित्य में आंखें खोली तो नामवर जी मशहूर थे। उनके कार्यक्रम में बिना बुलाए ही भीड़ आ जाती थी। पता नहीं कितनी बार उन्हें सुना होगा। मुझे याद है कि इमरजेंसी के दौरान 1976 में मढ़ौरा में प्रगतिशिल लेखकों का सम्मेलन था। इसमें नामवर सिंह पानी के जहाज से कार्यक्रम में शिरकत करने गए थे। नामवर जी छोटी-छोटी बातों पर खुश हो जाते थे। उनके अंदर ग्रामीण दिल धड़कता था। नई पीढ़ी से संवाद करना पसंद था।