अपनी राहों के खुद बने ये बाजीगर
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इस मुहावरे को जीवन में सार्थक साबित कर रहे ये हुनरमंद
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इस मुहावरे को जीवन में सार्थक साबित करने का काम राजधानी के कुछ हुनरमंद लोग कर रहे हैं। भगवान ने उनसे एक चीज छीनी तो उन्होंने दूसरी चीज यानी अपनी प्रतिभा को ताकत बना लिया। फिर क्या अपनी प्रतिभा से उन्होने सब को अचंभित तो किया ही, साथ ही दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बने। विश्व दिव्यांग दिवस पर अंकिता भारद्वाज की रिपोर्ट खुद हैं दिव्यांग, पर दूसरों को कर रहीं आत्मनिर्भर
भूतनाथ रोड की रहने वाली 30 साल की वैष्णवी कई साल से बीमार है। उनकी बीमारी रीढ़ की हड्डी से लेकर दोनो पांव में भी है, जो अब कैंसर का रूप ले रही है। ऐसी परिस्थितियों में वैष्णवी राज्य भर में घूमकर 16 जोड़ियों की शादी करा चुकी है। वैष्णवी बताती है कि वर्ष 1996 से 2007 तक इलाज चला। काफी कोशिशों के बाद भी कुछ सुधार नहीं हुआ। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और फिर दिव्यांगों के लिए सरकार से प्रदत्त सुविधाओं की जानकारी लेनी शुरू की। कानून के बारे में भी जानकारी ली, जिससे उन्हें पता चला कि सरकार ने उन लोगों के लिए कितनी सारी सुविधाएं दी है, जो जानकारी के अभाव में उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। उन्होंने सरकार की मदद से दिव्यांग लोगों की शादी का जिम्मा लिया। वो बताती हैं कि दिव्यांगों को शादी के समय सरकार से कई सारी मदद के साथ ही आर्थिक मदद भी मिलती है। 2016 से अबतक तक उन्होंने 12 जोड़ियों की शादी कराई है। दोनों पैर से लाचार, फिर भी लोगों को सुरक्षित पहुंचाते हैं मंजिल पर
दरियापुर के रहने वाले संतोष कुमार मिश्रा पेशे से कार चालक हैं। संतोष बताते हैं कि बचपन में ही उनके बाएं हाथ और पांव में परेशानी थी। इसके कारण वो सही से चल नहीं सकते थे। कई बार तो उन्हें अपनी मदद के लिए दूसरों का सहारा लेना पड़ता था। मिश्रा बताते हैं कि बचपन में अपनी जिद के कारण वो छत पर चढ़ गए, जिसके बाद उनके दूसरे पैर में भी 36 टाके पड़े। इसके बाद वो अपने दोनों पैरों से लाचार हो गए। पर उन्होंने अपनी लाचारी को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। उन्होने पूरी कोशिश की और खुद को फिर से अपने पैर पर खड़ा किया। अभी के समय में संतोष एक बहुत ही अच्छे और सफल कार चालक हैं और अपनी इस प्रतिभा के माध्यम से वो कई दुर्गम जगहों पर कार ड्राइव कर अपनी प्रतिभा का हुनर मनवा चुके हैं, जहां जाने से पहले अच्छे-अच्छे ड्राइवर भी कई बार सोचते हैं। जिद से रचा इतिहास, खेल में जीते 49 मेडल
बो¨रग रोड के रहने वाले अनुराग चंद्रा दोनों पांव से लाचार हैं, लेकिन जोश ऐसा ही सियावील ग्लेशियर भी नाप चुके हैं। अनुराग बताते हैं कि दो साल की उम्र में वह पोलियो के शिकार हो गए थे। हालांकि, उन्होंने हार नहीं मानी और बिहार सरकार से अबतक तीन बार खेल सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं। अनुराग ने दिव्यांग के लिए एथेलेटिक्स, बैडमिंटन, वॉलीबॉल, तैराकी, फुटबॉल, शतरंज, क्रिकेट, कराटे जैसे नौ और गेम खेल चुके हैं। 2013 में अंतरराष्ट्रीय योग चैंपियनशिप में ताइवान में भाग लिया और वहां भारत को पांचवां स्थान प्राप्त हुआ। 2008 से खेलते हुए अनुराग ने अब तक कुल 49 पदक जीते हैं, जिसमें आठ राष्ट्रीय चैपियनशिप शामिल हैं। अपनी प्रतिभा से सब को बना रही दिवाना
दानापुर की रहने वाले 37 साल की ममता भारती पेंटिंग की दुनिया में किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। उनकी प्रतिभा और मधुबनी पेंटिंग की बिहार ही नहीं, राज्य के बाहर भी डिमांड है। ममता बताती हैं कि पांच साल की उम्र में उन्हें पहली बार पोलियो की परेशानी हुई। इसके बाद उनका चलना-फिरना कम होने लगा। धीरे-धीरे चलना बिल्कुल बंद हो गया और 2000 में ममता को व्हील चेयर का सहारा लेना पड़ गया। पर उन्होंने अपनी उम्मीद नहीं छोड़ी और मधुबनी पेंटिंग में अपनी रुचि बढ़ानी शुरू कर दी। अपनी पेंटिंग की बदौलत ममता भारती कई सारे राष्ट्रीय अवार्ड से नवाजी जा चुकी हैं। ममता की खासियत मधुबनी पेंटिंग के साथ ही कई सारे आर्ट और कला के क्षेत्र में है। ममता बताती हैं कि वो अपनी व्हील चेयर पर बैठ कर ही पेंटिंग बनाती हैं।