Acharya Janaki Vallabh Shastri : जहां हर दिन गूंजते थे साहित्य के स्वर, आज वहां खामोशी
पुण्यतिथि विशेष महाकवि की तपोस्थली निराला निकेतन में सन्नाटा। संपूर्ण साहित्य जगत में आदर के साथ याद किए जाते आचार्यश्री।
मुजफ्फरपुर, जेएनएन। महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की तपोस्थली 'निराला निकेतन' आज सूना है। जहां हर दिन साहित्य के स्वर गुंजायमान होते थे, आज वहां चारों तरफ खामोशी पसरी है। उदास पेड़, मुरझाए फूल, चटकती दीवारें, बिखरी किताबें, बदरंग होता और भी बहुत कुछ। अपने स्मारक स्थल पर मूर्तिरूप बैठे आचार्यश्री कहते हुए प्रतीत होते हैं - 'सुख सुनने को आकुल अग जग किसे सुनाऊं दुखड़ा।' हम उनकी आत्मा की आवाज को अनसुनी कर अपना ही अलाप, विलाप-संताप सुनते वाद-विवाद किए जा रहे हैं। स्मृतियों में डूबकर कदाचित हम दुखी होते हैं तो लगता है कि आचार्यश्री सांत्वना देते प्रेरित कर रहे हैं - 'दुख को सुमुख बनाओ, गाओ। काली घटा छंटेगी कैसे, रिमझिम रिमझिम स्वर बरसाओ।'
समृद्ध साहित्य परंपरा के ज्ञाता
गीत-कविता के गौरव महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री अपनी साहित्य-साधना, संवेदनशील रचनात्मकता और मानवीय मूल्य के कारण संपूर्ण साहित्य जगत में आदर के साथ याद किए जाते हैं। उनका विपुल लेखन, विषय-वैविध्य, जीवन अनुभव और हृदय-राग से भरा हुआ है। वे जीवनपर्यंत विचार, संवेदना, प्रेम, प्रकृति, संस्कृति, सद्भाव, साधना और शक्ति के राग गाते रहे। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.संजय पंकज बताते हैं कि समृद्ध साहित्य परंपरा के ज्ञाता और संवाहक आचार्यश्री मानवीय मूल्य और शाश्वत सत्य के श्रेष्ठ सर्जक थे। उनका साहित्य प्रेरक तथा प्राणदायी है। उन्होंने कई ऊर्जावान समर्थ गीतों का सृजन किया है। वे ईमानदारी में विश्वास करते थे। तभी तो गाते रहे - 'बात मान की या कहो ईमान की। गान में चाहता मैं, झलक प्राण की।'
कालजयी कृतियों की रचनाएं
संघर्षरत जीवन को उद्बोधित करते हुए व्यापक संस्कृति-संवाद करने वाले महाकवि ने कई कालजयी कृतियों की रचना की। उन कृतियों में सात सर्गों के महाकाव्य 'राधा',महाकाव्यात्मक उपन्यास 'कालिदास', संस्मरण 'हंसबलाका', गीतिनाट्य 'तमसाÓ, 'पाषाणी' व 'इरावती' और आलोचना 'त्रयीÓ उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण हैं। कभी 'राका' फिर 'बेला' पत्रिका का संपादन प्रकाशन करते हुए साहित्यकारों की कई पीढिय़ों का सृजन किया।
कभी समझौता नहीं किया
कवि सम्मेलनों में आकर्षण के केंद्र और प्रभावशाली व्यक्तित्व आचार्यश्री अपने स्वर-सम्मोहन तथा रचना-आलोक में सबको वशीभूत कर लेते थे। उन्होंने जीवन और सृजन में कभी समझौता नहीं किया। स्तरीय लेखन से विमुख होना उन्होंने किसी कीमत पर स्वीकार नहीं किया। संघर्षों के झंझावात में भी वे स्वाभिमान और संकल्प के गीत गाते रहे - ' अपनी नैया खे निकले, लहर पैंग भरते निकले। चक्कर में सब राह रोकते, क्यों न भंवर मंझधार के।'