Bihar Election 2020: इस बार के विधानसभा चुनाव में मैदान के लिए नहीं हो रही मारामारी, सोशल मीडिया से ही यारी
Bihar Election 2020 चुनावी सभा के लिए मैदान की स्वीकृति के लिए नहीं आ रहे आवेदन। 2014 लोकसभा चुनाव में पुलिस लाइन मैदान पर सभा के लिए भाजपा व राजद में ठन गई थी। मगर विवाद न हो इसके लिए मोदी का सभास्थल बदलकर पटियासा कर दिया गया था।
मुजफ्फरपुर, [ प्रेम शंकर मिश्रा ]। बात वर्ष 2014 की है। लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए नरेंद्र मोदी की घोषणा कर दी थी। मोदी को मुजफ्फरपुर से हुंकार सभा की शुरुआत करनी थी। इसके लिये पुलिस लाइन मैदान का चयन किया गया था। मगर, उसी तिथि को इस मैदान पर राजद ने भी सुप्रीमो लालू प्रसाद की सभा का आयोजन किया था। फिर क्या था। पुलिस लाइन मैदान के लिए दोनों दलों में ठन गई। जिला प्रशासन को इस मामले को सुलझाने में खासी मशक्कत करनी पड़ी थी। निर्णय भाजपा के पक्ष में गया था। मगर, विवाद न हो इसके लिए मोदी का सभास्थल बदलकर पटियासा कर दिया गया था।
चुनाव में मैदान की भूमिका कम हो गई
यह थी मैदान के लिए मारामारी। मगर, कोरोना काल में हो रहे बिहार विधानसभा चुनाव का रंग कुछ अलग हो गया है। उम्मीदवार चुनाव मैदान में तो हैं, मगर इस चुनाव में मैदान की भूमिका कम हो गई है। रैली व सभा के लिए जिन मैदानों की मारामारी रहती थी, उसकी कोई पूछ नहीं है। जिले में दूसरे व तीसरे चरण के लिए चुनाव होने हैं। दूसरे चरण के नामांकन की अवधि शुक्रवार को समाप्त हो गई। मगर, अब तक किसी मैदान पर रैली या हेलीपैड के एनओसी लिए अब तक आवेदन नहीं आए हैं। इसकी जगह नामांकन दाखिल करने से पहले उम्मीदवार सोशल मीडिया पर अपने नाम का पेज बनाकर वर्चुअल चुनावी मैदान में उतर गए हैं। इसमें वैसे भी उम्मीदवार हैं जो पहले सोशल मीडिया से दूर रहते थे। अब वे इसे हैंडल करने के लिए एक टीम बना चुके हैं। चुनाव प्रचार से लेकर सभी गतिविधियों को वे सोशल साइट्स पर डाल रहे। यही नहीं वे प्रतिद्वंद्वियों पर भी इसी से वार कर रहे।
मतदाता से लेकर राजनीतिक पंडित तक नहीं भांप पा रहे हवा का रुख
कभी चुनावों में रैली व सभा की भीड़ व वहां से निकलने वाले नारों के आधार पर जीत व हार का आकलन होता था। मतदाता हवा का रुख भांपते थे। मगर, बड़े-बड़े मैदानों से चलकर मोबाइल में सिमट चुके चुनावी शोर को मतदाता से लेकर राजनीतिक पंडित भी नहीं समझ पा रहे हैं। दशकों से राजनीतिक सभा को कवर करने वाले प्रमोद कुमार की मानें तो पहले मैदानों से ही चुनावी सभा की पहचान थी। धीरे-धीरे यह सभा गली-मोहल्ले में होने लगी। इस चुनाव में मामला पूरा वर्चुअल है। अगले एक-दो दशक में अगर हम ई-वोटिंग की ओर बढ़ जाएं तो आश्चर्य नहीं। वे यह भी मान रहे कि लोकतंत्र के लिए यह बेहतर संकेत है। सभाओं में जो करोड़ों रुपये खर्च होते थे उसकी भी बचत होगी।