वसंतोत्सव से ही थी फाग गाने की परंपरा, बाजारवाद ने सबकुछ निगला
गांव-गांव में टोलियों में गाया जाता था फागा। प्राकृतिक रंगों से खेली जाती थी होली। मनभेद और मतभेद को दूर करने वाले पर्व के रूप में थी इसकी पहचान।
जासं, मुजफ्फरपुर : उड़ी उड़ी कागा कदम चढ़ बैठे, जौवन के रस ले भाग। लोक भाषा के रंग में ऐसे आध्यात्मिक सौंदर्य के फाग गाने की परंपरा वसंतोत्सव से शुरू हो जाती थी। ग्रामीणों की टोलियां गांवों में घूम घूम कर फाग गाती थीं। उनके स्वागत में नाश्ता-पानी घरों में होता था। एक बेहद आत्मीय व रसपूर्ण वातावरण वसंत के साथ शुरू हो जाता था। आज भी वसंत पंचमी में माता सरस्वती को अबीर अर्पित किया जाता है। यह कहना है प्रसिद्ध सांस्कृतिक चिंतक एवं बीआरए बिहार विवि के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. रामप्रवेश सिंह का। वे होली के सांस्कृतिक, प्राकृतिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य की चर्चा कर रहे थे। प्राचीन फाग गीतों का केंद्र कृष्ण और राधा संग गोपियों के रंग खेलने में हंसी ठिठोली और शिकवा शिकायत विषय होता था - नकवेसर कागा ले भागा, सैंया अभागा न जागा।
खेत की मिट्टी से होता था तिलक
होली की परंपरा थी कि किसान अपने जमींदार को हल से खुदी खेत की मिट््टी से तिलक करते थे। ताकि, धरती माता अधिक से अधिक अन्न उपजा कर गृहस्थ को आर्थिक खुशहाली दें। प्राकृतिक रंगों से होली खेली जाती थी।
अश्लीलता का पर्याय बना त्योहार
होली की सांस्कृतिक एवं सामाजिक समरसता का भाव शहरीकरण के दौर में खत्म होता गया। तीन दशक से बाजारवाद ने तो होली को अपसंस्कृति के पर्याय वाला त्योहार बना दिया। बाजार में भोजपुरी के अश्लील गीतों का कैसेट बजता है। शहर से लेकर गांव में घटिया किस्म के गाने बजाकर होली खेली जाती है। केमिकल रंगों का इस्तेमाल स्वास्थ्य के लिए हानिककारक है। घटिया किस्म के रंग व अबीर का प्रयोग गांवों में होता है।