इलेक्ट्रिक लाइट्स की चकाचौंध के बीच भी दीपों की महत्ता कम नहीं
दीपावली रोशनी का त्योहार है। दीपों की लड़ियां इस पर्व की पहचान होती हैं। इस आधुनिक जमाने में इलेक्ट्रिक लाइट्स की चकाचौंध के बीच भी चाक पर गढ़े जाने वाले दीपों की महत्ता कम नहीं हुई है।
मुजफ्फरपुर। दीपावली रोशनी का त्योहार है। दीपों की लड़ियां इस पर्व की पहचान होती हैं। इस आधुनिक जमाने में इलेक्ट्रिक लाइट्स की चकाचौंध के बीच भी चाक पर गढ़े जाने वाले दीपों की महत्ता कम नहीं हुई है। अब जबकि दीपावली में महज चंद दिन शेष रह गए हैं, कुम्हार जोर-शोर से दीप बनाने में जुटे हैं।
हरिसभा चौक स्थित राधाकृष्ण मंदिर के पुजारी पंडित रवि झा व रामदयालु स्थित मां मनोकामना देवी मंदिर के पुजारी पंडित रमेश मिश्र बताते हैं कि पूरे देश में मनाया जाने वाला यह उत्सव अपने में स्थानीय परंपराओं व लोक कथाओं को समेटे हुए है। समय की माग के मुताबिक, आज भले ही बाजार में तरह-तरह के दीये आ गए हों, मगर मिट्टी के दीपों का महत्व कम नहीं हुआ है। हर शुभ काम में इनका प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है।
सदर अस्पताल स्थित मां सिद्धेश्वरी दुर्गा मंदिर के पुजारी पंडित देवचंद्र झा बताते हैं कि मिट्टी के दीपों को पंचतत्वों में से एक अग्नि का प्रतीक माना जाता है।
इधर, मिट्टी के दीप बनाने के पुश्तैनी व्यवसायी से जुड़े कुम्हारों का कहना है कि चाइनीज लाइट्स ने दीपों की माग कम की है, लेकिन इनका धार्मिक महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। इसलिए इनका व्यवसाय आज भी बरकरार है।
आमगोला पड़ाव पोखर लेन के कन्हाई पंडित बताते हैं कि दीपक बनाना हमारे लिए केवल एक व्यवसाय ही नहीं है, बल्कि यह हमारी रगों में बसता है। चाक की रफ्तार पर तैयार होने वाले इन दीपों को बनाने में कड़ी मेहनत लगती है। पूरा दिन मिट्टी तैयार करने में लग जाता है। मिट्टी को छानने उसे तपाने और बनाने से लेकर सुखाने में चार दिन लगते हैं। तब जाकर कहीं एक हजार दिए तैयार होते हैं। इतनी मेहनत के बावजूद पारिश्रमिक भी ऊपर नहीं हो पाती। अभी 60 से 80 रुपये प्रति सैकड़ा की दर से दीपों के दाम मिलरहे हैं।