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अब नेपाली हाथी भी भारत की राह ताकने को मजबूर, उनके अपने देश से पसंदीदा भोजन गायब

प्रतिवर्ष सितंबर से जनवरी तक नेपाल से भारत में आता है हाथियों का झुंड। उनको वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना में बहुतायत मात्रा में उपलब्ध रोयना का पौधा आकर्षित करता है।

By Ajit KumarEdited By: Published: Sun, 23 Aug 2020 01:59 PM (IST)Updated: Sun, 23 Aug 2020 01:59 PM (IST)
अब नेपाली हाथी भी भारत की राह ताकने को मजबूर, उनके अपने देश से पसंदीदा भोजन गायब
अब नेपाली हाथी भी भारत की राह ताकने को मजबूर, उनके अपने देश से पसंदीदा भोजन गायब

पश्चिम चंपारण, [दीपेंद्र बाजपेयी]। यह पड़ोसी देश नेपाल से आया हाथियों का झुंड है। इनके अपने देश और अभयारण्य से इनका पसंदीदा भोजन गायब है। भूखे हाथियों का झुंड नेपाल से भारत में प्रवेश कर गया है। जंगल में अपना पसंदीदा आहार रोयना का पौधा(पिथराज पेड़) खोजने के दौरान रिहायशी इलाके में भी पहुंच जा रहा। भूख की वजह से खेतों में लगे धान और गन्ने की फसलों का नुकसान किया। भले ही मेहमान बनकर आए। लेकिन, आचरण मेहमानों वालों नहीं रहा। इसलिए भारतीय ग्रामीणों एवं वनकर्मियों ने इन्हें खदेड़ना आरंभ कर दिया है।

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रात में भारत आ जा रहे हाथी

भारतीय नागरिक एवं वनकर्मी प्रतिदिन खदेड़कर इन्हें नेपाल की सरहद में पहुंचाते हैं और ये फिर रात में घुस आते हैं। शायद ये यह कहना चाहते हैं कि मुझे भूख लगी है। मेरा पसंदीदा आहार अब मेरे देश में नहीं रहा। वहां के लोगों ने मेरे आहार पर भी डाका डाल दिया। रोयना के पत्ते और डाल तोड़ेंगे , खाएंगे। मन भर जाएगा तो हर वर्ष की तरह इस साल भी अपने वतन को लौट जाएंगे।

वनकर्मियों की टीम हाथियों के रेस्क्यू में लगी

दरअसल, प्रतिवर्ष सितंबर से जनवरी तक नेपाल से हाथियों का झ़ुंड भारत में प्रवेश करता है। वन अधिकारियों का कहना है कि हाथियों का पसंदीदा भोजन रोयना का पेड़ है। नेपाल में इसकी संख्या कम हो गई है। इस वजह से हाथियों का झुंड भारत में आ जाता है। खुली सीमा की वजह से हाथी यहां आते हैं। लेकिन, रिहायशी इलाके में घुसकर उपद्रव भी मचाने लगते हैं। ऐसे में जैसे ही नेपाली हाथियों के भारत में प्रवेश करने की सूचना मिलती है। यहां के वन अधिकारी अलर्ट हो जाते। वनकर्मियों की टीम हाथियों के रेस्क्यू में लगा दी जाती है। ताकि हाथी रिहायशी इलाके में घुसकर तबाही नहीं मचा सके।

फसल को नुकसान पहुंचाया

इस वर्ष भी हाथियों का झुंड नेपाल से भारत में प्रवेश किया है। मैनाटांड़ प्रखंड के मानपुर इलाके में करीब पांच एकड़ खेत में लगी धान एवं गन्ने की फसल को तहस- नहस कर दिया है। गौनाहा के सहोदरा के इलाके में हाथियों के झु़ंड को देखकर लोग भयभीत हैं। इनको नेपाल में खदेड़ने के लिए वनकर्मियों की टीम भी लगाई है। यह टीम प्रतिदिन खदेड़कर कर इन्हें नेपाल की सरहद पर पहुंचा देती है और रात को ये फिर भारतीय क्षेत्र में आ जा रहे हैं।

शिकारीबास नेपाल से भारत में हाथियों का प्रवेश द्वार

भारत नेपाल की सरहद पर बसा है गांव शिकारीबास। यह नेपाल से भारत में हाथियों के आने का प्रवेश द्वार है । ग्रामीण महेंद्र महतो बताते हैं कि जब भारत और नेपाल के बीच में जंगल सटा हुआ था तो हाथी भारत की ओर नहीं आते थे । नेपाल में पिछले दशक की राजनीतिक उथल-पुथल के बीच जंगलों की बड़े पैमाने पर अवैध कटाई हुई है। जिससे नेपाली शिकारीबास गांव तथा भारतीय क्षेत्र में भतुझीला गांव के बीच का जंगल खेत में तब्दील हो गया है। ऐसे में भारत में नेपाली हाथियों के आने का सुगम मार्ग बन गया है। खेतों में लगे धान व गन्ने की फसल रौंदकर नेपाली हाथी भारतीय सीमा में कदम रखते हैं।

अपनी धरती से गायब हुआ रोयना

रोयना (पिथराज पेड़) यह मेलियासी पेड़ की एक प्रजाति है। यह भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका का मूल निवासी है। लेकिन भारत से जुड़ी सरहद के समीप नेपाली क्षेत्र में पेड़ों की कटाई की वजह से रोयना की संख्या अब नेपाल के जंगल में कम हो गई है। हालांकि यह आयुर्वेद में एक औषधीय पौधे के रूप में व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। इस पेड़ का बंगाली नाम रोयना है। इस पेड़ का एक और नाम पिथराज भी है। इसका तेल खाद्य नहीं है । इसका उपयोग बायोडीजल और प्रकाश के रूप में किया जा सकता है। फर्नीचर निर्माण के लिए बहुत अच्छी लकड़ी होती है। इसका पेड़ 20 मीटर लंबा होता है। पत्तियां यौगिक और आयाताकार होती हैं। शीर्ष चक्करदार होता है। फूल अत्यंत सुंदर होता हैं। फल एकल बीज वाला होता है।

निर्धारित कॉरीडोर पर चलते हैं हाथी

सेवानिवृत वन अधिकारी सुरेंद्र सिंह के मुताबिक नेपाली हाथियों के भारत में आने का चलन पुराना है। परंतु अभी हालात कुछ बदल रहे हैं। नेपाल के सीमाई इलाके में जंगल कटने से उनका आशियाना सिमट रहा है। भोजन का संकट भी है, जिसके तलाश में वे भारत का रुख करते हैं। वीटीआर की आबोहवा और यहां की हरियाली उन्हें पसंद आती हैं। यहां उन्हें रहने के लिए पर्याप्त जगह और खाने के लिए वनस्पति, धान, गन्ने की फसल मिल जाती है। चूंकि जंगली हाथी अपने निर्धारित कॉरीडोर पर चलते हैं। इस कारण अक्सर रास्ते में पड़ने वाली फसलें और छप्पर आदि भी उजाड़ देते हैं। उत्पात मचाते हैं। किसानों पर हमला भी करते हैं।

हाथियों ने ले ली थी इनकी जान

-- 07 दिसंबर 2012 को भंगहा थाना क्षेत्र के सिसवा ताजपुर निवासी बिगा मांझी एवं भदई मांझी को हाथियों ने कुचल कर मार डाला।

--- 08 मई 2010 को हाथियों ने परसौनी गांव के होसिला पटेल को पटक- पटक कर मार दिया था।

-- 07 दिसंबर 2012 को हाथियों ने कई लोगों का घर उजाड़ दिया था और आधा दर्जन लोगों को घायल भी कर दिया था।

-- 06 नवंबर 2013 को मानपुर के इमिलिया टोला गांव में ग्रावील लकड़ा को हाथियों ने मार डाला

-- वर्ष 2018 में नेपाल से 18 बार भारतीय क्षेत्र में आया हाथियों का झुंड

-- गौनाहा के ठोरी गांव में अगस्त 18 में एक बच्ची को पटकर मार डाला

मंगुराहा क्षेत्र में हाथी रेस्क्यू सेंटर बनाया गया

इस बारे में वन प्रमंडल -01 वीटीआर के डीएफओ अंबरीश कुमार मल्ल कहते हैं कि नेपाल के शिकारीबास गांव के रास्ते हाथियों का झुंड भारत में प्रवेश करता है। वहां अब जंगल सघन नहीं रहा। जिससे हाथी भारतीय क्षेत्र में आसानी आ जाते हैं। हाथियों को वाल्मीकि व्याघ्र परियोजना में बहुतायात मात्रा में उपलब्ध रोयना का पौधा आकर्षित करता है। जिसकी तलाश में वे यहां आते हैं । मुख्यतः उनके आने का समय सितंबर से जनवरी तक है । नेपाली हाथियों से बचाव के लिए मंगुराहा क्षेत्र में हाथी रेस्क्यू सेंटर बनाया गया है।


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