थारु महिलाओं को रिझाने की सियासत, हस्तकला की नहीं बदली तस्वीर
बगहा दो प्रखंड का थरुहट क्षेत्र हस्त निर्मित वस्त्रों के मामले में खासा समृद्ध है जिसको लेकर उसे क्षेत्र जिला व राज्य ही नहीं बल्कि देश के कई राज्यों से भी सराहना मिलती रही है।
पश्चिम चंपारण, [अर्जुन जायसवाल]। पश्चिम चंपारण के वाल्मीकिनगर संसदीय क्षेत्र में थारु महिलाओं को वोट बैंक बनाने की सियासती वर्षों से हो रही है। सभी राजनीतिक दल इन्हें सम्मान की जिंदगी जीने की व्यवस्था करने का वादा करते हैं। लेकिन इनकी हस्तकला पर अब तक सियासत की नजर नहीं पड़ी। इस वजह से सैकड़ों महिलाओं की जिंदगी बदरंग है। सरकारी स्तर पर इनके बनाए कपड़ों के निर्यात करने की घोषणा हुई थी। लेकिन अभी तक उस दिशा में कोई पहल नहीं की गई।
थारू महिलाओं के हाथ की कला का कोई जवाब नहीं
बगहा दो प्रखंड का थरुहट क्षेत्र हस्त निर्मित वस्त्रों के मामले में खासा समृद्ध है, जिसको लेकर उसे क्षेत्र, जिला व राज्य ही नहीं बल्कि देश के कई राज्यों से भी सराहना मिलती रही है और दूर-दूर से खरीदार भी इनकी ओर आकर्षित होते रहे हैं। बुनकरी में थारू महिलाओं के हाथ की कला का कोई जवाब नहीं। उनकी सधी उंगलियां जब हस्तकरघा पर चलती हैं तो शॉल, चादर, मफलर और तौलिया पर खूबसूरत कलाकारी सामने आती है। समय समय पर यहां अधिकारी व नेता आते रहते हैं और इनकी कला को देखकर अभिभूत हो उठते हैं।
सभी यहां से कुछ ना कुछ जरूर लेकर जाते हैं। पिछले साल सूबे के सीएम थरुहट के बिनवलिया गांव में एक कार्यक्रम में पहुंचे तो उन्हें थारुओं ने हाथ से बनी शॉल भेंट की गई। उसे देख सीएम इतने गदगद हुए कि उन्होंने यहां के ऊनी वस्त्रों के लिए पूरे देश में बाजार उपलब्ध कराने की घोषणा की। लेकिन समय बीतता गया और आज तक इन्हें किसी प्रकार की सरकारी सहायता उपलब्ध नहीं कराई गई।
कश्मीरी चादर से उम्दा क्वालिटी
बगहा दो प्रखंड के हरनाटांड़ में हस्तकरघा उद्योग पिछले करीब तीन दशक से संचालित है। यहां क्षेत्र की करीब पांच दर्जन महिलाएं काम करती हैं। यहां उनके हाथों की बुनी गई शॉल और चादर की मांग सूबे के कई शहरों के अलावा दूसरे राज्यों में भी है। यहां तक की जम्मू कश्मीर तक इसकी सप्लाई की जाती है। यहां की महिलाएं कश्मीर की तरह हाथ से बुनी पश्मीना शॉल भी बनाती हैं।
इसकी कीमत एक से दो हजार रुपये तक है। कम दाम और क्वालिटी बढिय़ा होने के चलते इस शॉल की डिमांड सबसे अधिक है। इसके लिए लुधियाना से ऊन और धागा मंगाया जाता है। अभी प्रति महीने यहां अलग-अलग किस्म की करीब सौ शॉल बनती हैं। इनकी कीमत दो सौ रुपये से शुरू होती है।
हुनर के बल पर जलता है चूल्हा
हरनाटांड़ के इस हस्तकरघा उद्योग में दर्जनों गांवों की करीब पांच दर्जन महिलाएं बुनकर का काम करती हैं। जो प्रतिदिन अपने घरों के काम निपटा कर यहां बुनाई के लिए पहुंचती हैं। हरनाटांड़ की शिवकुमारी देवी, महदेवा की मीना देवी, मिश्रौली की शकुंतला देवी, कटैया की संजू देवी, छत्रौल की चंद्ररेखा देवी, देवंती देवी, सबिता देवी व सेमरा की सरस्वती देवी के साथ दर्जनों बुनकर महिलाएं कहती हैं कि हम बुनकरों को सरकार द्वारा किसी योजना का लाभ नहीं मिलता है। हमलोग केवल सुनते हैं कि बुनकरों को लाभ मिलेगा लेकिन आज तक हमें किसी प्रकार की सहायता नहीं मिली है।
चादर बुनकर कमाती हैं ढाई से तीन सौ रुपये
हरनाटाड़ स्थित हस्तकरघा केंद्र के संचालक हरेंद्र प्रसाद के अनुसार हस्तकरघा के लिए दो भवन हैं, जिसमें सूत कातने की मशीनें लगी हैं। प्रतिदिन करीब पांच दर्जन महिलाएं यहां आती हैं और बुनाई करती हैं। ये महिलाएं प्रतिदिन करीब ढाई से तीन सौ रुपए तक ही कमा पाती हैं। जिसमें इन्हें एक शॉल बुनने के लिए 60 रुपये, चादर बुनाई के लिए 40 रुपये, तौलिए के लिए 20 और मफलर के लिए 08 रुपये प्राप्त होते हैं। इनकी बुनाई कर ये महिलाएं करीब ढाई से तीन सौ रुपये कमाती हैं।
हस्तकरघा के हाल पर एक नजर
- 30 वर्ष पहले हरनाटांड़ में आरंभ किया गया हस्तकरघा
- 3000 रुपये प्रतिदिन एक बुनकर महिला की आमदनी
- 10 महिलाओं का समूह एक साथ हस्तकरघा में करता है काम
-08 गांव की महिलाएं बुनकर कला से खींच रहीं जीवन की गाड़ी
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