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Janki Ballabh Shastri Death Anniversary: पांडुलिपियों की चोरी से आहत आचार्यश्री ने कर दी थी 'राधा' की पुनर्रचना

Janki Ballabh Shastri Death Anniversary आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री पटना जाने के दौरान रास्ते में हो गई थी पांडुलिपियों की चोरी। सात सर्गों में 1000 से अधिक पृष्ठों में सृजित है राधाÓ महाकाव्य। जानिए राधाÓ महाकाव्य रचना की पूरी कहानी।

By Murari KumarEdited By: Published: Wed, 07 Apr 2021 11:50 AM (IST)Updated: Wed, 07 Apr 2021 11:50 AM (IST)
Janki Ballabh Shastri Death Anniversary: पांडुलिपियों की चोरी से आहत आचार्यश्री ने कर दी थी 'राधा' की पुनर्रचना
मुजफ्फरपुर के निराला निकेतन में स्थापित आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की प्रतिमा।

मुजफ्फरपुर [अंकित कुमार]। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री उन महान कवियों में शामिल रहे, जिन्होंने हिंदी कविता के कई युगों को एक साथ जिया। सनातन मूल्यों को पुनस्र्थापित करतीं उनकी कविताएं व काव्यभाषा अपने विश्वास पर अटल हैं। एक ओर 'राधाÓ जैसा महाकाव्य उनके विराट साहित्यिक व्यक्तित्व को अलंकृत करता है, वहीं सरल पंक्तियां सहजता भी दर्शाती हैं। कहते हैं राधा महाकाव्य की रचना उनके मन और हृदय से जुड़ी थी। राधा और कृष्ण के प्रेम को तात्विक रूप में प्रस्तुत करने के लिए बांसुरी का व्यापक फलक इसकी पृष्ठभूमि बनी। उन्होंने सात सर्गों (अध्याय) के महाकाव्य का सृजन 1968 के आसपास कर लिया था। प्रकाशन की तैयारी कर रहे थे, उसी दौरान पांडुलिपियों की चोरी हो गईं। 

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आचार्यश्री के करीबी रहे साहित्यकार डॉ. संजय पंकज बताते हैं कि रचना पूरी होने के बाद उन्हें पटना रेडियो स्टेशन के एक कार्यक्रम में जाना था। उन्होंने यह सोचकर पांडुलिपियां ले लीं कि वहां प्रकाशकों से बात की जाएगी। उन दिनों पटना जाने के लिए स्टीमर में सफर करना पड़ता था। आचार्यश्री स्टीमर में सवार हुए। उस पर कुछ कवि और साहित्यकार भी थे। सफर में वे रचनाएं सुनाते रहे। रेडियो स्टेशन से निकलने के बाद उन्हेंं पांडुलिपियों के चोरी होने का पता चला। यह उनके लिए गहरा आघात था। जीवन में दुख और संघर्ष झेलने वाले शास्त्रीजी ने दोबारा रचना करने की ठान ली। अगले डेढ़ साल में सात सर्गों में 1000 से अधिक पृष्ठों के राधा महाकाव्य का पुन:सृजन कर दिया। 

सृजन की अछूती कहानी

राधा सृजन की भी अछूती कहानी है। मुजफ्फरपुर स्थित निराला निकेतन परिसर में आचार्यश्री को एक रात बांसुरी की आवाज सुनाई दी थी। वे बेचैन होकर उस आवाज के पीछे भागते रहे। अगले दिन पूरे मोहल्ले में बांसुरी वादक की तलाश की गई थी। कई वादकों को सुना, लेकिन किसी में वैसा स्वर और जादू नहीं था। यह क्रम तीन महीने तक चलता रहा। अंतत: उनके मन और हृदय को मथता हुआ उनकी आत्मा और चेतना से यह गीत निकला 'किसने बांसुरी बजाई...जन्म-जन्म से पहचानी वह तान कहां से आई...किसने बांसुरी बजाई...Ó। 

वर्ष 1971 में पहले सर्ग का प्रकाशन

इसके प्रथम सर्ग 'प्रणय पर्वÓ का प्रकाशन 1971 में लोकभारती प्रकाशन से हुआ था। दूसरे 'पुरुषार्थ पर्वÓ 1981 में प्रकाशन संस्थान, दिल्ली से प्रकाशित हुआ। तीसरे 'दर्शन पर्वÓ व चौथे 'विनोद पर्वÓ का प्रकाशन पराग प्रकाशन, नई दिल्ली से हुआ। पांचवें निर्वेद पर्व का प्रकाशन भी 1988 में हुआ। छठे प्रभाष पर्व व सातवें उत्सर्ग पर्व का प्रकाशन नहीं हो सका था। वर्ष 2007 में सातों सर्गों को एक साथ प्रकाशित किया गया।


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