Kargil Vijay Diwas : लड़ाई में जिले के दो बेटों ने शहादत से पहले दुश्मनों को नाकों चने चबाने को किया था मजबूर
Kargil Vijay Diwas माधोपुर सुस्ता के प्रमोद कुमार और फंदा के सुनील कुमार सिंह की कुर्बानी पर जिलावासियों को गर्व। सरकारी घोषणाओं के बाद भी उपेक्षित हैं दोनों शहीदों के गांव।
मुजफ्फरपुर, [प्रमोद कुमार]। वर्ष 1999 में हुई कारगिल की लड़ाई में जिले के दो बेटों ने भी अपनी कुर्बानी दी थी। कुढऩी प्रखंड स्थित माधोपुर सुस्ता गांव के प्रमोद कुमार और मड़वन प्रखंड स्थित फंदा गांव के सुनील कुमार ङ्क्षसह की कुर्बानी लोग दो दशक बाद भी भूल नहीं पाए हैं। उनकी शहादत पर जिलावासियों को आज भी गर्व है। प्रथम बिहार रेजिमेंट के 23 वर्षीय प्रमोद कुमार 30 मई एवं पैराशूट रेजिमेंट के सुनील कुमार ङ्क्षसह 23 जुलाई को शहीद हुए थे।
38 दिनों के बाद मिला था प्रमोद का पार्थिव शरीर
विशेश्वर राय एवं दौलती देवी के लाल प्रमोद 22 साल की उम्र में प्रथम बिहार रेजिमेंट में बहाल हुए थे। बहाली के एक साल बाद ही उनको कारगिल युद्ध में शामिल होने का अवसर मिल गया। द्रास सेक्टर को दुश्मनों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए वे मेजर सर्वानंद के साथ पाकिस्तानी सैनिकों से भिड़ गए थे। मेजर व पांच बिहार के सैनिकों के साथ 30 मई 1999 को उन्होंने शहादत पाई थी। उनके बड़े भाई श्यामनंदन यादव बताते हैं कि युद्ध में जाने से पूर्व उससे बात हुई थी। उसने कहा था कि मेजर सर्वानंद के साथ कूच कर रहा हूं। इसी बीच शाम में न्यूज चैनलों पर मेजर सर्वानंद समेत बिहार रेजिमेंट के पांच जवानों के शहादत की सूचना मिली। प्रमोद का पार्थिव शरीर 38 दिनों बाद बर्फ के बीच से मिला था। 48 दिनों के बाद उसका पार्थिव शरीर गांव पहुंचा था। उसके अंतिम दर्जन को पूरा गांव उमड़ पड़ा था। शहीद प्रमोद की चर्चा होते ही बूढ़ी हो चली मां दौलती देवी की काया में ऊर्जा और आंखों में चमक दिखाई पडऩे लगती है। वह कहती हैं कि जाने से पहले बोला था कि आकर खूब सेवा करेंगे। लेकिन, भारत माता की रक्षा के लिए कुर्बान हो गया। आज भी माधोपुर सुस्ता गांव के लोगों को अपने बेटे पर गर्व है।
दुश्मनों को मारकर सुनील ने पाई थी शहादत
फंदा गांव निवासी गणेश प्रसाद सिंह के पुत्र सुनील कुमार सिंह वर्ष 1988 में सेना के पैराशूट रेजिमेंट में बहाल हुए थे। सेना में शामिल होने के साथ ही उनको वर्ष 1989 में शांति सेना एवं वर्ष 1994-95 में ऑपरेशन विजय में शामिल होकर अदम्य साहस का परिचय दिया था। उसके बाद उनके रेजिमेंट को कारगिल युद्ध में पराक्रम दिखाने का मौका मिला। लड़ाई के दौरान 23 जुलाई को उन्होंने कई दुश्मनों को मार शहादत को गले लगा लिया। उनकी शहादत पर पत्नी मीना देवी को पति और पिता गणेश प्रसाद सिंह को पुत्र के खोने की पीड़ा तो हुई, लेकिन इस बात का गर्व भी रहा कि सुनील ने मातृभूमि के लिए अपना बलिदान दिया। इतना ही नहीं अपने बेटे की शहादत पर फंदा गांव के लोगों को गर्व हुआ।
आदर्श गांव नहीं बन सका दोनों शहीदों का गांव
दोनों की शहादत पर तब की सरकार ने उनके गांवों को आदर्श गांव बनाने की घोषणा की थी। समय के साथ सरकार बदल गई, लेकिन उनके गांव की तस्वीर नहीं बदली। दोनों शहीदों के परिवार को सरकार द्वारा घोषित सुविधाएं जरूर मिलीं, लेकिन उनका गांव उपेक्षित रह गया।