दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का अभूतपूर्व विकास, थाइलैंड में अनुशासन का अभ्यास अनुकरणीय
बैंकाक में हुई संगोष्ठी से लौटे सीतामढ़ी के इतिहासकार व पुरातत्वविद रामशरण ने साझा कीं यादें। भारत के अलावा कंबोडिया अमेरिका थाइलैंड और मलेशिया के विद्वानों ने अपने विचार रखे।
सीतामढ़ी, [नीरज कुमार] । दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का विस्तार नहीं, अपितु विकास है। वहां के लोगों ने इसे अच्छी तरह से अपना लिया है। थाइलैंड में तो रामायण और बौद्ध संस्कृति एक साथ दिखती है। वहां के मंदिरों में रामायण की पेंटिंग के बीच बौद्ध धर्म की पेंटिंग मिल जाएगी। वहां के लोगों ने राम और रावण की वेशभूषा अपने ढंग से विकसित कर ली है। वहां सनातन धर्म, बौद्ध धर्म और भारतीय संस्कृति रची-बची है। हमें इसके संरक्षण, संवर्धन में योगदान देना चाहिए।
थाइलैंड की राजधानी बैंकाक में 'बौद्ध चिंतन, प्राचीन भारत हिंदू चिंतन, दक्षिण-पूर्व एशिया में विशिष्ट संदर्भ रामायण विषय पर आयोजित दो दिवसीय (2-3 मार्च ) संगोष्ठी से शुक्रवार को लौटे सीतामढ़ी के प्रख्यात इतिहासकार और पुरातत्व के जानकार रामशरण अग्रवाल ने यह जानकारी दी। गोष्ठी में उन्होंने चेचर, वैशाली, सीतामढ़ी व बलिराजगढ़ के पुरातात्विक महत्व और संभावनाओं पर विचार रखे थे। इसकी सचित्र प्रस्तुति की थी।
थाइलैंड में लोगों का अनुशासन अनुकरणीय
संगोष्ठी में अपनी भागीदारी को यादगार लम्हा बताते हुए श्री अग्रवाल ने कहा कि इससे दक्षिण-पूर्व एशिया में रामायण व बुद्धत्व के प्रति नैसर्गिक सोच की जानकारी हुई। उन्होंने थाइलैंड के लोगों के दैनिक जीवन में अनुशासन के अभ्यास को अनुकरणीय बताया। कहा कि वहां भारत की तरह नियम का उल्लंघन नहीं दिखता। सड़कों पर बड़ी संख्या में गाडिय़ां होने के बाद भी न तो हार्न का प्रयोग दिखता है, न ही जाम। हर काम में अनुशासन। इससे सीखने की जरूरत है।
शिल्पको विश्वविद्यालय-संस्कृत स्टडीज सेंटर, अयोध्या शोध संस्थान, उत्तर प्रदेश सरकार और थाई-भारत सांस्कृतिक एसोसिएशन के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित संगोष्ठी में भारत के अलावा कंबोडिया, अमेरिका, थाइलैंड और मलेशिया के विद्वानों ने भाग लिया। इसमें थाइलैंड के संस्कृत के विद्वान डॉ. चिरापत परपंडविद्या, अयोध्या शोध संस्थान के डॉ. वाईपी सिंह व थाई-भारत सांस्कृतिक प्रतिष्ठान के अध्यक्ष सुशील कुमार धानुका ने भी अपने विचार रखे।