कोरोना से जंग में सहायक होगा स्वदेशी और स्वावलंबन का गांधी पथ, जानिए
गांधीजी का स्वच्छता स्वदेशी व स्वावलंबन का दर्शन कोरोना से उपजी चुनौतियों से निबटने में सहायक। स्वतंत्रता सेनानी व गांधीवादी विचारक रामसंजीवन ठाकुर ने की इसकी समसामयिक व्याख्या।
मुजफ्फरपुर, अजय पांडेय। स्वच्छता, स्वदेशी और स्वावलंबन का गांधी पथ। तीनों जीवन के आलंब। कोरोना और उससे उपजी परिस्थितियों का समाधान गांधी मंत्र से अलग नहीं। हमारी हर पहल आज इसके इर्दगिर्द नजर आती। स्वच्छता कई बीमारियों का इलाज है। स्वदेशी का विकल्प नहीं और दूसरे की नौकरी स्थाई नहीं।
गांधी दर्शन से प्रेरित वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी रामसंजीवन ठाकुर के ये भाव कोरोना काल में उपजी चुनौतियों की बेहतर व्याख्या करते हैं। गांधीजी के तीनों मंत्र और उनसे जुड़े तर्क, इस दौर में स्वयंसिद्ध हो रहे। बापू ने यही तो कहा था-स्वच्छ रहो, स्वदेशी अपनाओ और स्वावलंबी बनो।
हर विचार का होता है एक वक्त
हर सोच-विचार का एक वक्त होता है। जिसका समय आ गया, उसे कोई रोक नहीं सकता। स्वतंत्रता सेनानी देश की आजादी के दौर को याद करते हैं। वैश्विक माहौल विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि का था। कूटनीति, हिंसा, वर्चस्व..। लेकिन, भारत ने बापू के अहिंसक मंत्रों के सहारे स्वतंत्रता पाई। आज हम उसी दहलीज पर हैं, जहां गांधी पथ शुरू होता है। गांधीजी ने स्वच्छता की बात कही थी।
कोरोना से बचने के लिए आज क्या इलाज हो रहा? संक्रमितों को कौन सी दवा दी जा रही? आप देखिए.. उन्हें एकांतवास दिया जा रहा। प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से बना काढ़ा पीने-पिलाने के नुस्खे अपनाए जा रहे। खुद से लेकर गांव-समाज की साफ-सफाई हो रही।
गांधीजी स्वदेशी का अर्थ बताते थे, हमारी ऐसी भावना जो हमें अपने परिवेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। कहते थे, हमें अपने पड़ोसियों के बनाए सामान का उपयोग करना चाहिए। उनकी कमियों को दूर कर सक्षम बनाना चाहिए। आज हर दूसरे-तीसरे घर में मास्क बन रहा। जेल, जीविका, घरेलू महिलाएं इसका निर्माण कर रहीं। यही तो स्वदेशी है।
स्वदेशी से जुड़ा स्वावलंबन
कोरोना काल में दुनिया का आर्थिक पहिया थम सा गया है। काम-धंधे सीमित हो रहे। नौकरियां छूट रहीं। लोग शहर छोड़कर गांव, सरजमीं पर पहुंच गए हैं। दूर से हमें ये भीड़ नजर आती है। पर, यह वैविध्यपूर्ण समाज और अवसर है। गांधीजी के अर्थदर्शन के अनुसार हमें समस्या, परिस्थिति, चुनौती, शक्ति और संसाधन को मिलाकर अवसर विकसित करना है। हमारी वर्तमान सभ्यता ने स्वदेशी अपना लिया तो समाज स्वावलंबी बन सकेगा। ग्राम्य जगत आज इसी मुहाने पर है, जहां से स्वावलंबन की राह निकलती है।