भारतीय परंपरा के निष्ठावान चिंतक थे डॉ.खगेंद्र ठाकुर, साहित्यकारों ने इन शब्दों में दी श्रद्धांजलि
निधन की सूचना मिलते ही साहित्य जगत में शोक की लहर। नए रचनाकारों को पढ़ते और प्रोत्साहित करते हुए उन्हें देते थे सही मार्गदर्शन।
मुजफ्फरपुर, जेएनएन। 9 सितंबर 1937 को गोड्डा में जन्मे डॉ.खगेंद्र ठाकुर साहित्य की एक विभूति थे। उन्होंने भक्ति आंदोलन का पुनर्मूल्यांकन किया था। सोमवार को उनके निधन की सूचना मिलते ही साहित्यकारों में शोक की लहर फैल गई। कहा कि सतत अध्ययनशील खगेंद्र ठाकुर के जाने से न सिर्फ उनका परिवार सूना हुआ, बल्कि हिंदी जगत सूना हो गया है।
युवाओं को करते थे प्रोत्साहित
कविता, आलोचना व व्यंग्य की कोख सूनी हो गई है। वे नए रचनाकारों को जमकर पढ़ते और प्रोत्साहित करते हुए उन्हें मार्गदर्शन भी देते थे। अपने शब्द कर्म के प्रति ईमानदार रहते हुए साहित्य-संस्कृति को नवीन गति देनेवाले खगेंद्र ठाकुर का निधन एक पीढ़ी के निर्माता अभिभावक के जाने जैसा है। आलोचना के अनुभवों की जो थारी हमें सौंप गए हैं, वह हमारे धरोहर के रूप में अक्षुण्ण रहेगा। उनका काव्य संग्रह 'रक्त कमल धरती परÓ व व्यंग्य संग्रह 'देह धरे को दंडÓ की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है, जितनी कि उनके जन्म के समय में थी, क्योंकि ये दोनों संग्रह समग्रता में लिखी गयी संपूर्णकालिक रचना है।
विचार से जनवादी, स्वभाव से सौम्य
कवि व साहित्यकार उदय नारायण सिंह बताते हैं कि वे विचार से जनवादी, स्वभाव से सौम्य और हृदय से दयालु साहित्यकार थे। उनका हमारे बीच से चला जाना, अतिशय मर्माहत कर रहा है। वे तो क्या आज पूरा साहित्य जगत दुखी है, खासकर पटना और मुजफ्फरपुर की पीड़ा तो शब्द की सीमा से परे है।
साहित्य आंदोलन के मजबूत स्तंभ
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.संजय पंकज बताते हैं कि वे प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के कर्मठ और मजबूत स्तंभ थे। जनोन्मुखी आलोचक के रूप में उनकी ख्याति थी। किसी भी गोष्ठी में उनकी गरिमामयी उपस्थिति विमर्श को सही और ठोस दिशा देती रही। उनकी गंभीरता में जड़ और कट्टर प्रतिबद्धता से ज्यादा समयानुकूल मूल्याग्रह हुआ करता था। वे भारतीय परंपरा के निष्ठावान चिंतक थे।
गिरते सामाजिक मूल्यों को लेकर चिंता
साहित्यकार डॉ.पंकज कर्ण बताते हैं कि अपनी रचनात्मकता से हिंदी आलोचना को सार्थक दिशा देनेवाले खगेंद्र ठाकुर अद्भुत आलोचक थे। समाज के गिरते मूल्यों को लेकर भी वे काफी चिंतित थे। उन्होंने आलोचना को संपूर्णता व वैभव के साथ धार प्रदान किया। अपने प्रयोगधर्मिता के बल पर उन्होंने हिंदी साहित्य को पैनापन दिया। इनके जाने से उत्पन्न हुए शून्य की भरपाई साहित्य जगत में शायद ही हो सके।
बहुत बड़ी क्षति
साहित्यकार डॉ.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी बताते हैं कि वे साहित्य के कई पीढिय़ों के प्रणेता, संरक्षक व अभिभावक थे। यही नहीं उनके जैसे लेखक, संगठनकर्ता कवि, व्यंग्यकार, निबंधकार, आलोचक व विचारक का निधन साहित्य जगत के लिए बहुत बड़ी क्षति है।