सेहत का ध्यान, लीची पर नीम और दही से बनी कीटनाशी का इस्तेमाल Muzaffarpur News
गोमूत्र नीम के पत्ते और खली को मिलाकर बनाते कीटनाशी घोल। लीची के फलों और जड़ों को कीड़ों से बचाने के साथ मिलता पोषक तत्व भी। एईएस के लिए लीची को नहीं मानते जिम्मेदार।
मुजफ्फरपुर, [अजय पांडेय]। एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) को लेकर देशभर में अलग-अलग व्याख्या और बहस हो रही। एक वर्ग इसे लीची से जोड़ रहा तो दूसरा अज्ञात वायरस बता रहा। सच्चाई जो हो, भ्रम की स्थिति बरकरार है। इन सबके बीच सकरा प्रखंड के मछही गांव निवासी प्रगतिशील किसान डॉ. दिनेश कुमार जैविक रूप से बनी कीटनाशी का प्रयोग लीची पर करते हैं।
इससे न सिर्फ फलों का कीड़ों से बचाव होता, बल्कि मिठास व गुणवत्ता बरकरार रहती है। फल आकार में बड़े और उनमें एकरूपता रहती है। उनके इस काम के चलते राष्ट्रपति पुरस्कार सहित कई सम्मान मिल चुके हैं। उनका कहना है कि लीची को एईएस से जोडऩा सरासर गलत है। यह बदनाम करने की साजिश है।
दो किलो दही से बनता 100 लीटर घोल
डॉ. दिनेश कीटनाशी बनाने के लिए मुख्य रूप से दही का इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए मिट्टी के बर्तन में जमे दही का ही इस्तेमाल करते हैं। दो किलो दही को पीतल या तांबे के बर्तन में रखकर खादी या सूती कपड़े से ढक आठ से 10 दिनों के लिए छोड़ देते। इस अंतराल में बर्तन के अंदरूनी हिस्से में तूतिया की परत जम जाती है। फिर दही को मथकर मक्खन अलग कर लिया जाता।
मक्खन को वर्मी कंपोस्ट और नीम की खली में मिलाकर उसे पौधों की जड़ों में डाला जाता है। इससे पौधों को नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के अलावा अन्य पोषक तत्व प्राप्त होता है। इसके बाद शेष दही में दो लीटर पानी डालकर लस्सी बनाई जाती। फिर 100 लीटर पानी डालकर घोल तैयार किया जाता। इसी घोल का इस्तेमाल छिड़काव के लिए होता है।
इसके अलावा लीची के पौधों को बचाने के लिए गोमूत्र और नीम के पत्ते से बनी कीटनाशी घोल का भी इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए निश्चित अनुपात में गोमूत्र में नीम के पत्ते डालकर छाया में कई दिनों तक रखा जाता है। इसके बाद उसे छानकर पौधों पर छिड़काव किया जाता है।
तीन बार किया जाता छिड़काव
राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजे जा चुके डॉ. दिनेश बताते हैं कि दही के घोल का इस्तेमाल तीन बार में किया जाता। पहले लीची में मंजर आने से 20-25 दिन पहले फिर मंजर आने पर और आखिर में जब फूल से दाना बनने का समय होता है, तब छिड़काव किया जाता। किसान क्लब मछही के अध्यक्ष अयोध्या प्रसाद कहते हैं कि क्लब से 464 किसान जुड़े हैं, जो इस घोल का इस्तेमाल करते हैं। इस घोल का सबसे बड़ा फायदा है कि फलों के ठंडल मजबूत होते हैं और फल चमकदार होते हैं। कीड़े का प्रकोप खत्म हो जाता है।
2010 से कर रहे इस्तेमाल
वह बताते हैं कि दही का इस तरह इस्तेमाल घटनात्मक रूप से 2010 में हुआ। घर में शादी के दौरान दही के बर्तन में पीतल का गिलास गिर गया था। किसी की नजर नहीं पडऩे से वह उसी में पड़ा रहा। दो दिन बाद दही का रंग हरा हो गया। लोगों ने उसे फेंकने का निश्चय कर लिया। लेकिन, उन्होंने फेंकने के बजाय घोल बनाकर नर्सरी में फूलों के गलते बिचड़ों पर छिड़काव कर दिया। दो-तीन दिन बाद बिचड़े स्वस्थ और हरे-भरे हो गए।
एक-दो बार सब्जियों की फसल पर भी इसका इस्तेमाल किया। वहां भी सफलता मिली। लेकिन, वे इसका रासायनिक महत्व नहीं समझ पा रहे थे। हरियाणा के हिसार कृषि विश्वविद्यालय में उसके नमूने की जांच कराई। उसमें बताया गया कि इसमें तूतिया का अंश है, जो प्राकृतिक रूप से पौधों पर कीटनाशी और पोषक तत्व का काम कर रहा।
दिनेश के बाग की लीची की पंजाब में विशेष मांग
डॉ. दिनेश के बाग की लीची की पंजाब के बाजार में विशेष मांग है। वे बताते हैं कि उनकी लीची फाजिल्का में सर्वाधिक भेजी जाती है। वहां इसबार 320 रुपये प्रतिकिलो के हिसाब से बिकी। फिलहाल, उनके साथ हरियाणा, उत्तर प्रदेश व बिहार के किसान जुड़े हैं।
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