बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के दौरान मुजफ्फरपुर में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद जदयू में मंथन, भाजपा में चिंतन
विधानसभा चुनाव में मुजफ्फरपुर व कुढ़नी की सीट गंवाना भाजपा के लिए बड़ा धक्का। जिले में चार सीटों पर लड़ी जदयू ने तीन गंवाई एक पर जीत मानी जा रही उम्मीदवार की। इसलिए चिंतन और मंथन का क्रम जारी है।
मुजफ्फरपुर, [प्रेम शंकर मिश्रा]। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में एनडीए की सरकार बनने पर सुकून भरा उत्साह तो है। मगर, मुजफ्फरपुर जिले में एनडीए के घटक दलों के पदाधिकारी व कार्यकर्ताओं में मायूसी है। कारण, एनडीए के दो पुराने जोड़ीदारों का प्रदर्शन निराशाजनक है। इसके उलट एनडीए में जुड़ी नई पार्टी वीआइपी की सौ फीसद सफलता ने दोनों पार्टियों पर दबाव बढ़ा दिया है। साथ ही आत्मचिंतन को मजबूर कर दिया है। लोजपा के उम्मीदवारों को बेहतर वोट मिले
पहले बात जदयू की। पिछले विधानसभा चुनाव में इस पार्टी ने राजद व कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ा था। तीन सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। मगर, जीत एक पर भी नहीं मिली। इस बार एनडीए के साथ चार सीटों पर उम्मीदवार दिए। मगर, तीन पर हार मिली। सकरा सीट पर पार्टी उम्मीदवार अशोक कुमार चौधरी महज 12 सौ वोटों से जीते। यह सीट जदयू से अधिक अशोक कुमार चौधरी की मानी जा रही है। जिन तीन सीटों पर पार्टी के उम्मीदवाराें की हार हुई वहां लोजपा के उम्मीदवारों को बेहतर वोट मिले। मीनापुर में जदयू उम्मीदवार मनोज कुमार को करीब 44 हजार वोट मिले तो लोजपा के अजय कुमार को करीब 43 हजार। राजद के राजीव कुमार उर्फ मुन्ना यादव 60 हजार वोट लाकर जीत हासिल की। यहां महत्वपूर्ण यह रहा कि अजय कुमार पिछला चुनाव भाजपा के टिकट पर लड़े थे।
मतदाताओं में भ्रम की स्थिति
यह माना जा रहा कि भाजपा के कुछ कार्यकर्ता उनके लिए काम करते रहे। साथ ही मतदाताओं में भ्रम की स्थिति बनी रही। इससे यहां जदयू को हार मिली। कमोबेश यही स्थिति गायघाट की रही। यहां जदयू उम्मीदवार व पूर्व विधायक महेश्वर प्रसाद यादव करीब नौ हजार वोटों से हारे। राजद के निरंजन राय को जीत मिली। लोजपा उम्मीदवार कोमल सिंह को यहां मिले करीब 33 हजार वोट जदयू की हार का अहम कारण रहा।
जदयू उम्मीदवार के प्रति उदासीन रहे
कोमल सिंह की माता व वर्तमान वैशाली सांसद वीणा देवी गायघाट से भाजपा विधायक रह चुकी हैं। वहीं पिछला चुनाव भी भाजपा के टिकट पर लड़ी थीं। यहां भी माना जा रहा कि भाजपा के कुछ कार्यकर्ता लोजपा उम्मीदवार के लिए काम करते रहे। साथ ही जदयू उम्मीदवार के प्रति उदासीन रहे। समन्वय की कमी भी रही। कांटी में जदयू उम्मीदवार मो. जमाल मुख्य लड़ाई में भी नहीं रहे। यहां भी भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ जदयू का समन्वय बेहतर नहीं रहा। अब इन तीनों सीटों पर हार के कारणों को लेकर जिलाध्यक्ष रंजीत सहनी ने पार्टी पदाधिकारियों के साथ बैठक की। कहां चूक रह गई इसपर पार्टी मंथन भी कर रही। मगर, यह मलाल जरूर रह गया कि कम से कम जिले में दो और सीटें जीती जा सकती थीं। अब पांच वर्षों तक यह कसक सालती रहेगी।
भाजपा में भी हार की कसक
एनडीए के दूसरे घटक दल भाजपा में भी दो सीटों पर हार की कसक कम नहीं। क्योंकि कम से कम मुजफ्फरपुर सीट पर पार्टी की जीत करीब-करीब पक्की मानी जा रही थी। चुनाव से पहले पूर्व नगर विकास व आवास मंत्री सुरेश कुमार शर्मा की उम्मीदवारी को लेकर विरोध के स्वर जरूर थे। मगर, पार्टी सिंबल मिलने के बाद विरोध के यह स्वर धीमे पड़ गए।
बूथ मैनेजमेंट की दिखी पूरी कमी
मगर, भाजपा जिस स्तर पर बूथ मैनेजमेंट के लिए जानी जाती है वह यहां नहीं दिखी। भाजपा के वोटर घरों से बूथ तक नहीं पहुंच सके। यहां करीब 51 फीसद ही वोटिंग हुई। अगर यहां तीन से चार फीसद भी अधिक वोटिंग होती तो परिणाम उलट हो सकता था। क्योंकि महागठबंधन के अधिकतर वोटरों ने अपने वोट डाले। वहीं मुजफ्फरपुर से सटी कुढ़नी सीट पर भी भाजपा के केदार गुप्ता की हार भी आश्चर्यजनक रही। पिछले चुनाव में समीकरण विपरीत होने के बाद भी वे चुनाव जीते। मगर, इस बार जदयू के साथ रहने के बाद भी करीबी लड़ाई में राजद के डॉ. अनिल सहनी से हार गए। इस हार के तुरंत बाद उन्होंने पूर्व मंत्री व जदयू नेता मनोज कुमार उर्फ मनोज कुशवाहा को जिम्मेदार बताया। इस मामले में भाजपा के जिलाध्यक्ष रंजन कुमार कहते हैं कि कुढ़नी की हार इसलिए और तकलीफदेह है कि अंतर महज साढ़े चार सौ वोट रहा। वहीं मुजफ्फरपुर की हार में कोरोना फैक्टर रहा। भाजपा के परंपरागत वोटर कोरोना के डर से बूथों पर नहीं गए। इसके अलावा भी कारणों की पड़ताल के लिए 30 नवंबर को समीक्षा बैठक होगी। ताकि, सारी बातें सामने आ सके।