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हर स्तर पर जिम्मेदारियों की दरकार, तभी स्वास्थ्य ढांचे में सुधार Muzaffarpur News

व्यवस्था में हमेशा बनी रहती सुधार की गुंजाइश। पीएचसी से लेकर मेडिकल कॉलेज के स्तर तक का सिस्टम हो दुरुस्त। डॉक्टर अकेला कुछ नहीं कर सकता।

By Ajit KumarEdited By: Published: Tue, 25 Jun 2019 12:31 PM (IST)Updated: Tue, 25 Jun 2019 12:31 PM (IST)
हर स्तर पर जिम्मेदारियों की दरकार, तभी स्वास्थ्य ढांचे में सुधार Muzaffarpur News
हर स्तर पर जिम्मेदारियों की दरकार, तभी स्वास्थ्य ढांचे में सुधार Muzaffarpur News

मुजफ्फरपुर, [पुनीत झा]। व्यवस्था में कभी कुछ पूर्ण नहीं होता। कुछ न कुछ कमियां रहती हैं। सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती। सुधार लाने के लिए सभी का सहयोग जरूरी है। ये बातें श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज के पूर्व औषधि विभागाध्यक्ष व द एसोसिएशन ऑफ फिजिशयन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष पद के लिए नामित डॉ. कमलेश तिवारी ने कहीं। वे दैनिक जागरण कार्यालय में आयोजित जागरण विमर्श में 'कैसे सुधरे सरकारी स्वास्थ्य ढांचा?' विषय पर अपना सुझाव साझा किया।

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  वे पीएचसी से लेकर मेडिकल कॉलेज के स्तर तक व्यवस्था में सुधार की जरूरत पर बल देते हैं। उनका कहना है कि डॉक्टर अकेला कुछ नहीं कर सकता। मानव संसाधन के साथ आधारभूत संरचना का होना बेहद जरूरी है। जब तक इस स्तर पर काम नहीं होगा, व्यवस्था में सुधार संभव नहीं।

नैतिक जिम्मेदारी का अभाव

डॉ. तिवारी का कहना है कि यहां सालभर के कांट्रैक्ट पर डॉक्टर्स को बहाल किया जा रहा। इसका नतीजा है कि यहां कोई आना नहीं चाहता। पहले मेडिकल कॉलेज में इंट्री मुश्किल थी। अब स्थिति यह है कि यहां आते ही डॉक्टर्स पूछते हैं कि महीने में कितने दिन आना पड़ेगा? मेडिकल कॉलेज में ज्यादातर प्रोफेसर एडहॉक वाले हैं। बात सिर्फ इतनी नहीं है। काम करनेवाले लोगों में नैतिक जिम्मेदारी का भी अभाव हो रहा। इससे कई विसंगतियां सामने आ रहीं। काम करने की शृंखला बनी है, उसमें खामियां आ गई हैं। इसी का नतीजा है कि सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई है।

प्राथमिक स्तर से सुधार की जरूरत

देखिए, किसी भी ढांचे में सुधार की जब बात आती है तो प्राथमिक स्तर की बात होती है। सबसे पहले यहां की त्रुटियों को दूर किया जाना चाहिए। यहां ऐसी व्यवस्था हो कि लोग यहां इलाज के लिए आ सकें। अस्पताल के प्रति उनमें विश्वास हो। सामान्य बीमारी के इलाज के लिए भी एसकेएमसीएच आना, यहां अतिरिक्त दबाव बढ़ाने जैसा है।

एईएस के बहाने बदनाम हो रही लीची

एईएस को लेकर डॉ. तिवारी कहते हैं कि इसकी आड़ में लीची को बदनाम करना ठीक नहीं। लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर ही इस बीमारी में लीची की बात कर रहे। छह महीने से साल भर के बच्चे लीची नहीं खाते। फिर वे कैसे बीमार पड़ रहे। दूसरी बात पकी लीची के पल्प में कोई हानिकारक तत्व नहीं होता, कच्ची लीची और बीज नुकसान करता है, पर ये खाता कौन है।

  एईएस पीडि़त चालीस से पचास फीसद बच्चों में हाइपोग्लेसीमिया के लक्षण मिलते हैं। बच्चों को ग्लूकोज की मात्रा दें। उन्हें रात्रि में खाली पेट नहीं सोने दें। फिर भी यदि उन्हें बीमारी हो जाए तो नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र पर ले जाएं। घर पर प्राथमिक उपचार हो। पीएचसी स्तर पर इलाज से सुधार नहीं होने पर ही मेडिकल लाएं।

बेहतर कामकाज का डॉक्टरों को दें क्रेडिट

आज एईएस बीमारी के प्रकोप से जो बच्चे बच रहे हैं, उसका क्रेडिट डॉक्टरों को नहीं दिया जा रहा। मरने वाले बच्चों की तुलना में बचने वालों की संख्या ज्यादा है। डॉक्टर्स और नर्स बच्चों को बचाने में कम मेहनत नहीं करते। इसे अनदेखी नहीं करनी चाहिए। इसका कामकाज पर भी असर पड़ता है।

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