चौराहे पर बिक रहा 50 रुपये किलो 'बचपन'
आठ साल का सतीश (काल्पनिक नाम) प्रतिदिन सुबह पीठ पर स्कूल बैग की जगह बोरा लेकर निकलता है।
मुजफ्फरपुर। आठ साल का सतीश (काल्पनिक नाम) प्रतिदिन सुबह पीठ पर स्कूल बैग की जगह बोरा लेकर निकलता है। दिनभर कूड़े-कचरे से प्लास्टिक या अन्य ऐसा सामान ढूंढता फिरता है, जिसे बेचकर कुछ आमदनी हो जाए। सिर्फ शहर में दर्जनों ऐसे बच्चे हैं, जो परिवार की गाड़ी चलाने में सहयोग करने के लिए यह काम करते हैं। दिनभर की मेहनत के बाद वे बमुश्किल 50 रुपये तक ही कमा पाते हैं।
जिस कूड़े-कचरे को देखकर आम आदमी नाक पर रूमाल रखने को मजबूर हो जाता है। इन्हीं में दर्जनों बच्चे अपना भविष्य ढूंढते हैं। शहर के झपसी टोला, ब्रह्मापुरा के पक्की टोला, सिकंदरपुर, बैरिया, बहलखाना रोड और जीरोमाइल आदि जगहों पर ऐसे कई बच्चे दिख जाएंगे। न तो इनके माता-पिता पढ़े हैं और न ही इन बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। स्कूल भेजे भी कैसे, उनकी कमाई से परिवार का खर्च जो चलाना है।
झपसी टोला के झपसी पासवान ने बताते हैं कि सुनील राम, मनोज राम, किरण देवी, चंदू राम, रामदेई राम और रामबाबू राम आदि के बच्चों की जिंदगी कचरे में बीत रही है। यहां स्लम बस्ती के लोग खुले आसमान के नीचे रहते हैं। इनकी आजीविका का मुख्य साधन कचरे में से बिकने लायक सामान है। कबाड़ी को बेचकर पेट की आग बुझाते हैं। इनके माता-पिता भी छोटा-मोटा काम करते हैं।
स्लम बस्ती में नहीं कोई अभियान : वैसे तो सरकार सर्वशिक्षा अभियान चला रही है। गरीब बच्चों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कई एनजीओ को लाखों रुपये का अनुदान भी मिलता है। इसके बाद भी स्थिति ठीक नहीं है। हालांकि कुछ युवा इस दिशा में काम कर रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ता संजय रजक उनमें से एक हैं। वे बहलखाना रोड के ऐसे बच्चों को पढ़ाकर मुख्य धारा से जोड़ने का काम करते हैं। समाजसेवी राजीव कुमार सिकंदरपुर स्थित श्मशान घाट एरिया के बच्चों के लिए निश्शुल्क पाठशाला लगाते हैं। कॉपी-किताब का इंतजाम लोगों के सहयोग से करते हैं।
हजारों बच्चे बीच में ही छोड़ देते स्कूल
सर्वशिक्षा अभियान के तहत हर साल बच्चों को सरकारी स्कूलों से जोड़ने का अभियान चलाया जाता है। मध्याह्न भोजन की भी व्यवस्था इसलिए की गई है, ताकि गरीबों के बच्चे स्कूल में रुकें। इसके बाद भी स्कूल छोड़ने वालों की संख्या कम नहीं है। जिले में सरकारी प्राइमरी स्कूलों की संख्या तीन हजार है। 2016-17 के आंकड़े के अनुसार पढ़ने जाने वाले बच्चों की संख्या नौ लाख थी। इनमें से सात हजार से अधिक ने बीच में ही स्कूल छोड़ दिया।