अब होली में गांवों में नहीं सुनाई दे रही फाग की राग
नकबेसर कागा ले भागा मोरा सैंया.. के बोल अब बदल गए हैं। अश्लील गीतों के आगे अब होली की उमंग भी गायब होने लगी है।
गोपालगंज : नकबेसर कागा ले भागा, मोरा सैंया.., के बोल अब बदल गए हैं। अश्लील गीतों के आगे अब होली की उमंग भी गायब होने लगी है। आज से कोई दो-ढाई दशक पूर्व तक गांवों में होली को लेकर बसंत पंचमी के दिन से ही उत्साह दिखने लगता था। समय के साथ रिश्ते औपचारिक होते गए और होली की पुरानी परंपराएं भी बदलने लगी। यहीं कारण रहा कि होलिका दहन की भी पुरानी परंपरा बदलने लगी। आज के माहौल में गांवों में होलिका दहन होता तो है, लेकिन इस परंपरा के प्रति पुराने उत्साह में आ रही कमी आने लगी है। हां, होली के नाम पर अपसंस्कृति जरूर हावी होती जा रही है।
करीब ढाई दशक पूर्व गांवों में बसंत पंचमी के दिन से ही होलिका दहन की तैयारी शुरू कर दी जाती थी। बसंत पंचमी की रात गांव के बड़े बुजुर्ग तथा कुछ उत्साही लड़के सम्हत (होलिका दहन स्थल) पर जाकर एक नया बांस गाड़ देते थे। और उसी स्थान पर पहुंचे गांव के गवैया शुरू हो जाते थे -'नकबेसर कागा ले भागा, मोरा सैंया.., ना जागा'। इसके बाद गांवों में चालीस दिनों तक हरेक रात में होली का माहौल होता था। होली की तान पर ढ़ोलक की थाप हरेक रात सुनाई देती थी। कुचायकोट के सुदामा प्रसाद, मांझा के सुग्रीव कुशवाहा, बरौली के राजेंद्र पाण्डेय बताते हैं कि होली के एक दिन पूर्व सम्हत (होलिका दहन स्थल) जलाने के लिए पर्याप्त मात्रा में पुआल, गोहरा, उपला, पुरानी खरही तथा कुछ बगीचे के सूखे पत्तों को जमा कर दिया जाता था। और रात में होलिका दहन के कार्यक्रम से होली की हुड़दंग शुरू हो जाती थी। लेकिन अब होली के पुराने गीतों की जगह पर अश्लील होली गीत हावी होते जा रहे हैं। पुरानी होली अब गांवों में देखने को भी नहीं मिलती। वे कहते हैं कि यह सब आज के समय पर हावी आधुनिकता के कारण ही हुआ है। पुराने जमाने में होली के दिन सुबह धूल उड़ाने की परंपरा के बाद गारे व मिट्टी की होली होती थी। समय के साथ इसमें बदलाव होने लगा। गांवों की होली में होने वाले हंगामे के कारण इसका स्वरूप बदलने लगा। आज की होली औपचारिक हो चुकी है। ऐसे में गांवों में सम्हत (होलिका दहन स्थल) जलाने का भी कोरम जैसे-तैसे पूरा किया जाता है। कई गांवों में जहां पूर्व में दो-दो स्थानों पर होलिका दहन होता था वहां यह सिमट कर एक स्थान पर आ गया है। फाल्गुनी मिठास कम होती जा रही है।