दीपावली मनाने घर लौटे परदेशी, कुनबे में आई बहार
गोपालगंज : दीपावली पर्व तथा छह महापर्व को लेकर बाहर रहने वालों के घर लौटने से गांवों क
गोपालगंज : दीपावली पर्व तथा छह महापर्व को लेकर बाहर रहने वालों के घर लौटने से गांवों की रौनक लौटने लगी है। र कुटुम्बों का आना क्या हुआ, मानों कुनबे में बहार आ गई है। सबसे ज्यादा खुशी तो घर के बूढ़े-बुजुर्गो में है, जहां कल तक उनके घर उदास लगते थे, अब बेटा-पतोहू, नात-नतकुन के आ जाने से काफी खुश नजर आने लगे है। इनकी आंखों की चमक भी लौट आई है, और ये अपनी बूढ़ी निगाहें अपनी नींद को भुलाकर, देर रात तक घर को गुलजार रखने वाली रोशनी को मानो इस उम्मीद से निहार रही है कि कल जब अंधेरा छाएगा तो ये रोशनी ही उन्हें राहत देगी।
उधर प्रवासियों के लिए पर्व पर अपने घर आना तो जैसे अपनी पुरानी स्मृति में लौट आना है। वे जब अपने पास-पड़ोस में बैठकर बातचीत का सिलसिला शुरू करते है तो उसमें गांव घरों के गाय-भैंस, नाद-खूंटा से लगायत खेत-खलिहान व बाग पोखरों तक की स्मृतियां जीवंत हो उठती है। वहीं अपने मम्मी-पापा की ऊंची ख्वाहिशों तले दबे रहने वाले शहरुआ बच्चे, गांव-देहात के नए संघतियों संग मिलकर सकुन देने वाले मिट्टी के घरौंदे एवं ख्वाहिशों को मंजिल तक पहुंचाने वाली माचिस के खाली डिब्बों से रेलगाड़ियां बनाने में इस कदर व्यस्त हैं कि उन्हें खाने पीने तक की भी सुध नहीं है। 80 वर्षीय रामगोपाल पाण्डेय कहते हैं कि श्रद्धा और विश्वास के साथ अप्रतीम उल्लास से भरा हुआ यह पर्व सचमुच में लोक आस्था का महापर्व है। सभ्यताओं का यह अनुपम उपहार है। इसमें आस्था से हम अपनी उम्मीदों को ¨जदा रखने की ऊर्जा पाते है। सभ्यताओं के इतिहास में शायद छठ अकेला और अनूठा पर्व है, जहां डूबते सूर्य को भी अर्घ्यदान कर, लाखों-करोड़ों निगाहें सुबह उगने की प्रतीक्षा में श्रद्धानवत रहती है। काश, यह त्योहारी उत्सव हमारे अंदर हमेशा मौजूद रहते।